सिंधु घाटी सभ्यता की धार्मिक प्रथाओं, विश्वासों और उपासना विधि की चर्चा कीजिए ।

सिंधु घाटी सभ्यता का धर्म

सैन्धव संस्कृति के विकास के पीछे गहरी धार्मिक मान्यताएँ थी। यहाँ के लोग पढ़े-लिखे और कला-शिल्प में निपुण थे। अतः उनकी कलाशैलियों, मुद्राओं पर बनी आकृतियों, बर्तनों पर छपी चित्रकारी, कब्रों में दबी चीजों आदि से उनके धर्म के विषय में कुछ जानकारी मिलती है। यह हमारे लिए अत्यन्त खेद की बात है कि अभी तक उनकी लिपि ठीक से नहीं पढ़ी जा सकी है, जिससे उनकी भाषा और उसमें व्यक्त विचारों का ज्ञान नहीं हो सका, लेकिन फिर भी अन्य

सिंधु वासी किसकी उपासना करते थे?

से इस विषय पर काफी रोशनी मिल जाती है, जिससे कुछ ऐसे अनुमान लगाये जा सकते है, जो काफी अंशों तक संभव है।

हड़प्पा स्थलों से प्राप्त मुहरें धार्मिक मान्यता के बारे में जानकारी प्राप्त करने में कैसे सहायक होती हैं?

  • सिन्धु-प्रदेश की खुदाई में एक मुद्रा (मोहर) मिली है।
  • इस मुद्रा पर तीन मुख वाले उर्ध्वलिंग व्यक्ति योग मुद्रा में बैठा दिखाया गया है।
  • इस व्यक्ति के सिर पर दो सींगों और उनके बीच में पंखेदार वस्तु का बना तिकोना मुकुट है; इसके गले में त्रिकोणात्मक हार है और हाथों में ऊपर तक कंकड़ों की लड़ियाँ है; इसके बराबर में हाथी, चीता, गेण्डा और भैसा है और उसके आसन के नीचे हरिषों का जोड़ा है।
  • मुद्रा के ऊपरी हिस्से पर छ: शब्द अंकित है। यदि इन्हे पढ़ लिया गया होता तो इसका समीकरण करने में कोई कठिनाई नहीं होती। परन्तु सिन्धु लिपि को अभी तक ठीक से पढ़ा नहीं जा सका है।
  • फिर भी उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर बहुत से विद्वानों का मत है कि मुद्रा पर अंकित चित्र भगवान शिव का है। उनके अनुसार शिव को योगीश्वर, त्रिशूलघारी, पशुपति, त्र्यंम्बक, त्रिनेत्र आदि कहा जाता रहा है। किन्तु ध्यान देने की बात है कि इसके साथ शिव के विशिष्ट वाहन नन्दी वृषभ का कोई सम्बन्ध नहीं दिखाया गया।
    यदि यह चित्र भगवान शिव का होता तो इसके साथ नन्दी का होना जरूरी था।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि यह चित्र शिव का न होकर विश्वरूप त्वष्टृ है, जिसकी चर्चा ऋग्वेद में हुई है। वहाँ इसे विश्वकर्मा प्रजापति का रूप या पुत्र बताया गया है। यह सृष्टि में स्रष्टा के अवतार का प्रतीक है। इसके तीन सिर, मन, प्राण और वाक् (भूत जगत) को प्रकट करते है, जिनसे विश्व की सृष्टि होती है। इसका उर्ध्वलिंग स्रष्टा की प्रजनन-शक्ति का परिचय देता है और इसके आसन के नीचे बने हुए दो हरिण, प्रजापति और उसकी पुत्री उषा के हरिण और हरिणी के रूप में सम्भोग करने के सूचक है, जिसकी चर्चा मैत्रायणि संहिता और ऐतरेय ब्राह्मण में आई है।
  • इसके दोनों और दिखाये गये पशुओं के चित्र ऋग्वेद में वर्णित त्वष्टा के पशुपति रूप को प्रकट करता है।
  • सिन्धु-घाटी की खुदाई में एक अन्य मुद्रा भी मिली है, जिस पर एक योगासीन व्यक्ति का चित्र है।
  • चित्र के दोनों ओर एक-एक नाग तथा सामने दो नाग बैठे हैं | कुछ विद्वानों का मानना है कि नागों से घिरा हुआ योगी का यह चित्र भी भगवान शिव का है, क्योंकि वे अपने गले में नाग धारण करते है।
  • एक अन्य मुद्रा पर एक धनुर्धारी शिकारी का चित्र पाया गया है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह चित्र किरात वेशधारी भगवान शिव का है।
  • किन्तु इन समस्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि इस देवता की आकृति के पीछे विश्वरूप की परिकल्पना है। जो भी हो, इतना निश्चित है कि सिन्धुवासी एक परमपुरुष की पूजा करते थे।

अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न

  1. सैंधव धर्म क्या है?
  2. हड़प्पा सभ्यता के सामाजिक और धार्मिक जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं वर्णन करें?
  3. सिंधु घाटी सभ्यता में हिंदू धर्म का कौन सा तत्व प्रचलित था?
  4. हड़प्पा सभ्यता की धार्मिक प्रथाएं क्या हैं?
  5. सिंधु घाटी ने हिंदू धर्म को कैसे प्रभावित किया?
  6. सैंधव सभ्यता के प्रमुख देवता कौन थे?
  7. सिंधु सभ्यता में कौन सी भाषा थी?
  8. हड़प्पावासियों और वर्तमान भारतीयों की धार्मिक मान्यताओं में आप क्या समानताएं और अंतर पाते हैं?
  9. पुरातत्वविदों ने हड़प्पावासियों की धार्मिक प्रथाओं के पुनर्निर्माण का प्रयास कैसे किया?

हड़प्पावासियों की धार्मिक प्रथाओं पर मुहरों और टेराकोटा की मूर्तियां क्या प्रकाश डालती हैं?

  • सिन्धुवासियों में परमनारी की पूजा की काफी लोकप्रिय रही होगी। सिन्धुवासियों द्वारा मन्दिरों में पूजा-उपासना करने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। किन्तु सिन्धु नगरों की खुदाई में मिट्टी की बनी हुई बहुत-सी नारी मूर्तियाँ मिली है।
  • विद्वानों का मत है कि ये मूर्तियाँ मातृदेवी या प्रकृति देवी की मूर्तियाँ है। ऐसी प्रतीत होता है कि वे पृथ्वी माता की प्रतीक किसी देवी को मानते थे। इस देवी की पूजा सभी कृषि-प्रधान समाजों में प्रचलित थी।
  • ऋग्वैदिक काल में भी आद्यशक्ति या प्रकृति, पृथ्वी अथवा आदित के रूप में मातृपूजा का उल्लेख मिलता है। वे लोग इसके समक्ष पशुबलि अथवा नरबलि देते थे और उसके बदले में वह उन्हें धनधान्य देती थी। इस बात की भी संभावना है कि कालान्तर में मातृदेवी की इस उपासना से ही शक्ति-पूजा की परम्परा का विकास हुआ होगा।
  • मातृदेवी की मूर्तियाँ प्रायः नग्न रूप में मिली है। मूर्ति की कमर में पटका और मेखला तथा गले में गुलूबन्द अथवा हार प्रदर्शित किया गया है।
    सिर पर कुल्हाड़ी से मिलती-जुलती आकृति की कोई वस्तु भी दिखाई पड़ती है। कुछ मूर्तियों में जननी का रूप दिखाया गया है जिनमें शिशु को स्तनपान करते हुए प्रदर्शित किया गया है।
  • एक मूर्ति में एक ऐसी स्त्री बनी हुई है जिसके गर्भ से एक वृक्ष निकलता हुआ प्रदर्शित किया गया है। सम्भवत: यह वानस्पतिक जगत की देवी का प्रतीक हो।
  • एक अन्य मूर्ति के शीश पर एक पक्षी पंख फैलाये बैठा है।
  • इन सब बातों से स्पष्ट है कि सिन्धुवासी मातृदेवी को सारे लोक की पोषिका-पालिका जननी मानते थे।
  • बहुत-सी मूर्तियों के दोनों ओर दो प्याले अथवा दीपक है और इन मूर्तियों के अग्रभाग पर धूम्र के निशान है। इससे कल्पना की जाती है कि सिन्धुवासी इन प्यालों में तेल अथवा धूप जलाकर मातृदेवी अथवा पृथ्वी माता की प्रतीक किसी देवी की पूजा करते थे।

हड़प्पा सभ्यता के लोग किसकी पूजा करते थे whom did the people of Harappan Civilization?

  • परमपुरुष और परमनारी की पूजा के साथ-साथ सिन्धुवासी प्रजनन शक्ति की लिंग एवं योनि के प्रतीकों के रूप में भी पूजा करते थे। हडप्पा व मोहनजोदड़ो में बहुत से लिंग मिले है। ये सामान्य पत्थर लाल पत्थर अथवा नीले पत्थर के बने है। छोटे-छोटे आकार से लेकर चार फीट की ऊँचाई तक के लिंग मिले है। विद्वानों का मत है कि छोटे आकार के लिंगों की पूजा लोग अपने-अपने घरों में ही करते थे और बड़े आकार के लिंग विशेष स्थानों पर प्रतिष्ठित करके पूजे जाते थे।
  • आधुनिक हिन्दू धर्म में लिंग पूजा शायद सिन्धुवासियों की ही देन प्रतीत होती है। मैके महोदय का मत है कि लिंग की आकृति के जो पत्थर मिले है उन्हें पूजा का प्रतीक नहीं समझना चाहिये। सम्भवतः उनसे कूटने-पीसने का काम लिया जाता रहा होगा जैसाकि आज भी मूसल लोढ़े अथवा बट्टे से लिया जाता है।
  • खुदाई में पत्थर, चीनी मिट्टी तथा सीप के बने बहुत से छल्ले मिले है जिनका आकार आधा इंच से लेकर चार इंच तक है। बहुत से विद्वानों ने इस छल्लों को योनियों का प्रतीक मानकर यह मत व्यक्त किया है कि सिन्धुवासी योनि की पूजा भी करते थे। आर्य लोग योनि पूजक नहीं थे ।
  • अत: आज भारत में लिंग-योनि पूजा की जो परम्परा देखने को मिलती है, वह निस्सन्देह अनार्यों की देन है। छल्लों के बारे में मैके महोदय का मत है कि अधिकांश छल्ले स्तम्भों के आधार थे न कि योनियों के प्रतीक।

हड़प्पावासियों की धार्मिक प्रथाओं पर मुहरों और टेराकोटा की मूर्तियां क्या प्रकाश डालती हैं?

  • खुदाई में प्राप्त अनेक मुद्राओं पर वृक्षों के अनेक चित्र मिले है जिनके आधार पर विद्वानों का मत है कि सिन्धुवासी वृक्षों की पूजा करते थे।
    एक मुद्रा पर दो पशुओं की शीश पर नौ पीपल की पत्तियाँ अंकित है।
  • एक अन्य मुद्रा पर एक नग्न स्त्री का चित्र है जिसके दोनों ओर एक-एक टहनी बनी है। उसके सामने पत्तियों का मुकुट पहने एक अन्य आकृति का चित्र है। मार्शल महोदय का मत है कि मुद्रा में अंकित टहनियाँ पीपल की है।
  • कुछ विद्वानों का मत है कि वृक्ष-पूजा के दो रूप प्रचलित थे। एक वृक्ष को उसके प्राकृतिक रूप में पूजना, जैसे कि तुलसी का पूजन। दूसरा वृक्ष को किसी देवता के प्रतीक के रूप में पूजना, जैसे कि पीपल की पूजा।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धुवासी पीपल को बड़ा पवित्र मानते थे। उनकी मुद्राओं पर पीपल के अनेक रूप मिलते हैं। कहीं उसे वेदिका से उगा हुआ दिखाया गया है, कहीं इसके भीतर देवता को अंकित किया गया है, कहीं इसकी पांच पत्तों की टहनी और कहीं ग्यारह पत्तों की शाखा चित्रित की गई है।
  • एक जगह इसकी पांच टहनियों पर सात पत्ते ऊपर की ओर दो नीचे की ओर, और बराबर में एक शृंग सांप दाँए-बाँए को बल खाते दिखाया गया है।
  • कपड़ों और बर्तनों पर भी पीपल की टहनी और पत्तों के अनेक डिजाइन मिले है।
  • वेद में पीपल का पेड़ विश्व-सृष्टि का प्रतीक है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ब्रह्म को वृक्ष कहा गया है। वस्तुत: भारत में आरम्भ से ही पीपल को ब्रह्म का रूप समझ कर पूजा जाता रहा है।
  • सिन्धु के नगरों और ग्रामों के चौराहों और रास्तों पर बड़े-बड़े पीपल के पेड़ रहे होंगे, जिनकी जड़ों को सभी स्त्री-पुरुष पूजते और जल से सींचते होंगे, जैसा कि आज भी होता है।
  • कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सिन्धवासियों में पीपल के अतिरिक्त तुलसी, नीम, खजूर, बबूल आदि वृक्षों की पूजा भी प्रचलित रही होगी।
  • भारत में वृक्ष- पूजा की परम्परा बहुत पुरानी है। बौद्ध लोग भी पीपल की पूजा करते थे।

सिंधु सभ्यता के धार्मिक जीवन और विश्वास की परंपरा में कौन सी विशेषता सम्मिलित नहीं है?

  • वृक्ष पूजा के साथ-साथ सिन्धुवासी पशु-पूजा में भी विश्वास रखते थे ।
  • कुछ मुद्राओं पर बैल के चित्र मिले है। खिलौने के रूप में भी बैल मिले है।
  • मोहनजोदड़ो के एक ताम्रपत्र पर कुबड़दार बैल अंकित किया गया है।
  • इसलिए विद्वानों का अनुमान है कि सैन्धव-सभ्यता में बैल का भी बड़ा महत्त्व रहा होगा। शहरों की सड़कों पर बड़े-बड़े बैल विचरते होंगे और लोग श्रद्धा से उन्हें भोजन आदि देते होंगे। विद्वानों का अनुमान है कि शक्ति के प्रतीक के रूप में बैल की पूजा काफी लोकप्रिय रही होगी।
  • वैदिक परिभाषा में भी बैल देवत्व का प्रतीक माना गया है और बड़ा पवित्र समझा गया है।
  • बैल की भाँति भैंस और भैंसा की भी पूजा की जाती थी, क्योंकि अनेक मुद्राओं पर इनके चित्र मिले है।
  • गाय की पूजा के बारे में हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते। परन्तु नाग-पूजा काफी प्रचिलत थी।
  • एक मुद्रा पर नाग की पूजा करते हुए एक मनुष्य का चित्र अंकित है। एक चबूतरे पर लेटे हुए नाग को दिखलाया गया है। इससे स्पष्ट है कि सैन्धव सभ्यता में नाग भी पूज्य माने जाते थे।
  • मुद्राओं पर हाथी, बाघ, भेड़, बकरी, गैंडा, हिरण, ऊँट, घड़ियाल, गिलहरी, तोता, मुर्गा, मोर आदि पक्षियों के चित्र भी मिले हैं। सम्भव है ये सभी पशु- पक्षी सैन्धव लोगों के देवी-देवताओं के वाहन रहे हो, जैसा कि हम हिन्दू धर्म में देखते है।
  • सैन्धव प्रदेश की कुछ मुद्राओं पर मनुष्य को चीते से लड़ते हुए दिखाया गया है। इस चित्र में वृक्ष पर चढ़ा आदमी चीते को भगा रहा है, जो जाता हुआ पीछे को मुँह करके देख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन चित्रों में वृक्ष और मनुष्य प्रकृति के व्यवस्थित पक्ष के रूप है और चीता उसके उद्दाम पक्ष का प्रतीक है। इन दोनों पक्षों में निरन्तर संघर्ष चल रहा है, यही इन चित्रों से व्यक्त होता है।
  • सैन्धववासी पशुओं की आकृति विचित्र ढंग से बनाते थे। कुछ पशु आधे मनुष्य और आधे पशु है। आधा भेड़, आधा बकरा, आधा हाथी और आधा बेल या इसी प्रकार के अन्य मिश्रण से पशुओं की आकृति बनाते थे। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे इनमें दैवी अंश मानकर इनकी पूजा करते थे ।

हड़प्पा के लोग किस भगवान की पूजा करते थे?

सैन्धव लोग किसी-न-किसी रूप में अग्नि कृत्य या अग्नि-पूजा भी करते थे।
कालीबंगा के मकानों में कोयले आदि से भरे हुए गड्डे मिले हैं और एक टीले पर चबूतरे के ऊपर कुएँ और गुसलखाने के पास वैदियों की पंक्ति पाई गई है। यह कोई यज्ञभूमि प्रतीत होती है, जहाँ यजमान ऊपर की मूँछ मुंडवाकर और बायें कन्धे पर पीपल के पत्तों के डिजाइन की शाल डालकर यज्ञ करते थे और अनेक छेदों वाले बर्तनों में से सहस्रधार सोमरस वितरित करते थे। यज्ञ के बाद वे स्नान करते थे जिसके लिए कुण्ड और तालाब बने होते थे।
सैन्धव लोग सम्भवतः जल देवता में भी बड़ी श्रद्धा रखते थे। समुद्र, नदी, तालाब और कुण्ड को वे लोग देवता का निवास मानते थे।

प्रतीक मुद्रा

खुदाई में प्राप्त अनेक अवशेषों पर सींग, स्तम्भ और स्वास्तिका के चित्र मिलते हैं। विद्वानों का मत है कि इन चिन्हों का भी कुछ धार्मिक महत्व रहा होगा। सम्भव है कि यह चिन्ह किसी देवी देवता के प्रतीक रहे हो अथवा किसी धार्मिक भावना के प्रतीक के रूप में इनकी पूजा की जाती हो।

कुछ विद्वानों का मानता है कि ये सैन्धववासियों के अन्धविश्वास के प्रतीक रहे हो और इनके माध्यम से रोग-व्याधि को दूर भगाया जाता था। कुछ मुद्राओं पर बने चित्रों में नर-नारियों को सींगयुक्त दिखलाया गया है शीश पर सींग धारण करने का भी कुछ धार्मिक महत्त्व रहा हो।

इसी प्रकार स्तम्भ, स्वास्तिका और धूप-दीप आदि के प्रदर्शन का भी धार्मिक महत्त्व रहा हो। हिन्दू धर्म में आज भी स्वास्तिका के चिन्ह को पवित्र माना जाता है।

सिंधु घाटी सभ्यता की धार्मिक मान्यताएं क्या थी?

  • मुद्राओं पर अंकित देवी-देवताओं के चित्रों तथा प्रतीकों के अंकन से इतना तो निश्चित हो जाता है कि सैन्धव लोग सकार उपासना करते थे और उनमें मूर्तिपूजा प्रचलित सी ह्योगी, परन्तु वे लोग अपनी देव-प्रतिमाओं को कहाँ प्रतिष्ठित करते थे, इसका उत्तर अत्यन्त विवादास्पद है, क्योंकि खुदाई में अभी तक कोई ऐसा भवन नहीं मिला है जिसे हम मन्दिर अथवा उपासाना स्थल कह सके। कुछ विद्वानों का मानना है कि मोहनजोदड़ो में जिस स्थान पर कुषाणाकालीन बौद्ध स्तूप खड़ा है, उसके नीचे सैन्धव-वासियों का मन्दिर दबा पड़ा है।
  • मार्शल महोदय ने मुद्राओं पर अंकित नारियों की विभिन्न आकृतियों का अध्ययन करने के बाद यह मत स्थापित किया है कि ये नारी मूर्तियाँ मन्दिर की उपासिकाओं की होगी।
  • इसी प्रकार खुदाई में प्राप्त नग्न रूप में नृत्य करती हुई एक नर्तकी को विद्वानों ने देवदासी या उपासिका मानकर सौन्याचा साभ्यता में देवदासी प्रथा होने की कल्पना भी की है।
  • धार्मिक प्रथाओं में शारीरिक शुद्धि अथवा स्नान-ध्यान पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
  • पूजा में धूप-दीप का भी प्रयोग होता था। संगीत एवं नृत्य के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करने की परिपाटी भी रही होगी।
  • देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशु-बलि भी दी जाती थी।
  • मूर्तियों की योगासन मुद्राओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सैन्धव सभ्यता में योग-साधना का भी महत्त्व था।

सिंधु घाटी किन देवताओं में विश्वास करती थी?

सैन्धव लोग परलोक में विश्वास करते थे। सैन्धव लोग यह समझते थे कि मृत्यु के बाद मनुष्य की आत्मा दूसरे लोक में जाती है। अतः मुर्दे को या तो रस्मी तौर से कब्रों में दफनाया जाता था या उसे जलाकर उसकी भस्मी कलश में रख दी जाती थी। मुर्दे को दफनातें समय या उसकी भस्मी के साथ पशु, पक्षी, मछली, मनके, कड़े, बर्तन आदि चीजे भी रखा दी जाती थी। क्योंकि सैन्धव लोगों का विश्वास था कि आत्मा का दूसरे लोक में जाते समय उसका सफर आसान हो और ये चीजें उसके सफर में काम आये। एक मृद्भाण्ड पर बकरा, गाय या बैल और कुत्ता अंकित है, जिससे शायद बकरे या पशु-बलि की तरफ इशारा हो। सामान्य जनता को जादू व टोने-टोटके में भी विश्वास था। कुछ मुद्राओं से ऐसा प्रतीत होता है कि ये मुद्राएँ माण्डे ताबीज का काम देने के लिए बनाई गई थी।

जब तक सैन्धव लिपि पढ़ी नहीं जाती तब तक उनके धर्म के विषय में कुछ निश्चित रूप नहीं कहा जा सकता। फिर भी खुदाई में प्राप्त अवशेषों, आकृतियों, चित्रों आदि के आधार पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सैन्धव लोगों की धार्मिक मान्यताएँ आधुनिक हिन्दू धर्म से काफी मेल खाती है। चूँकि हिन्दू धर्म के कुछ लक्षण वैदिक धर्म से भिन्न है, अतः विद्वानों का मानना है कि ये अनार्य सभ्यता की देन है और सम्भवतः उनका मूल स्रोत सैन्धव धर्म रहा हो । लेकिन डॉ. बुद्ध प्रकाश की यह दृढ़ मान्यता है कि, “यह धारणा कि यह संस्कृति वेद- विरोधी थी भ्रान्तमूलक और साक्ष्यहीन है।”

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