वैदिक धार्मिक विचारधारा की व्याख्या कीजिए।

सैन्धव धर्म की विस्तृत विवेचना कीजिए ।

बहुत से विद्वानों की मान्यता है कि आधुनिक हिन्दू-धर्म का स्रोत सिन्धु घाटी रहा होगा। स्टुअर्ट पिगट, इसी मत को स्वीकार करते हैं। जॉन मार्शल भी इसी मत के अनुयायी हैं। उन्होंने लिखा है कि, “सिन्धु घाटी के धर्म में बहुत-सी ऐसी बातें हैं जिनसे मिलती-जुलती बातें हमें अन्य देशों में भी मिल सकती हैं और यह बात सभी प्रमौलिहासिक धर्मों के विषय में ठीक सिद्ध होगी। लेकिन सब-कुछ होते हुए भी उनका धर्म इतनी विशेषता के साथ भारतीय है कि आधुनिक युग के प्रचलित हिन्दू धर्म से कठिनता से उसका भेद किया जा सकता है।”

वस्तुत: सिन्धु घाटी के लोगों के धर्म तथा आधुनिक हिन्दू धर्म दोनों में अनेक विषयों पर आश्चर्यजनक समानता है। हिन्दुओं की भाँति सिन्धुवासी भी बहुदेववादी होते हुए भी वे ईश्वरीय सत्ता से परिचित थे।

  • सिन्धुवासियों ने परमपुरुष परमनारी को सृजन-शक्ति के प्रतीक रूप में माना तो हिन्दू लोग पार्वती-परमेश्वर को मानते हैं।
  • सिन्धुवासियों का पाशुपति शिव हिन्दू धर्म के शिव से मिलता-जुलता है। पाशुपति शिव की भाँति हिन्दुओं का शिव भी योगीश्वर है, त्रिशूलधारी है और पशुपति के रूप में विख्यात है।
  • सैन्धवों का पाशुपति त्रिनेत्र है तो हिन्दुओं का शिव त्रिमुखी है और उसके तीसरे नेत्र की भी कल्पना की गई है।
  • सिन्धुवासियों की मातृ-देवी हिन्दू धर्म की पृथ्वी एवं अदिति तथा आद्याशक्ति से मिलती-जुलती है।
  • सिन्धुवासी लिंग की पूजा करते थे तो हिन्दू धर्म में आज भी लिंग-पूजा का महत्त्व बना हुआ है।
  • सैन्धवों की भाँति हिन्दू धर्म में भी कहीं-कहीं पर लिंग-योनि की सम्मिलित पूजा का महत्त्व भी बना हुआ है।
  • सिन्धुवासी वृक्षों की पूजा करते थे। हिन्दू-धर्म में भी तुलसी, पीपल, आँवला, बबूल, शीशम आदि वृक्षों को धार्मिक महत्त्व दिया जाता है और समय-समय पर इनकी पूजा भी होती है।
  • सिन्धुवासी बहुत से पशु-पक्षियों की पूजा करते थे। हिन्दू धर्म में अनेक पशु-पक्षियों को देवताओं का वाहन मानकर धार्मिक महत्त्व दिया गया है जैसे कि हाथी इन्द्र का, बाघ दुर्गा का, मेंढ़ा ब्रह्मा का, घड़ियाल गंगा का, भैंसा यम का, बैल शंकर का, उल्लू लक्ष्मी का वाहन समझा जाता है ।
  • सिन्धुवासियों की भाँति हिन्दुओं में नाग-पूजा भी प्रचलित है।
  • सिन्धुवासियों में पवित्र स्नान और जल-पूजा का धार्मिक महत्त्व था। आधुनिक हिन्दू धर्म में भी इसका महत्त्व कायम है।
  • सिन्धुवासी प्रतीक पूजा करते थे । हिन्दु धर्म में स्वस्तिका-चिन्ह आज भी पवित्र और शुभ माना जाता है।
  • सिन्धुवासी साकार उपासना में विश्वास रखते थे और उन्होंने अपने देवताओं की मूर्तियाँ बनाईं। हिन्दू धर्म में भी मूर्तिपूजा प्रचलित है। जिस प्रकार सिन्धुवासी अपनी मूर्तियों के आगे धूप-दीप जलाते थे, उसी प्रकार हिन्दू लोग भी मूर्तियों के आगे धूप-दीप जलाते हैं।
  • विद्वानों का मानना है कि सिन्धु प्रदेश में देवताओं की सेवा के लिए उपासिकाएँ एवं देवदासियाँ होती थीं। हिन्दू धर्म में भी इस परम्परा को देखा जा सकता है।
  • देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए सिन्धुवासी पशु बलि देते थे। हिन्दू धर्म में भी कुछ देवी-देवताओं को सन्तुष्ट करने के लिए पशु बलि दी जाती थी।
  • सिन्धुवासियों के धार्मिक जीवन में योग-साधना का विशेष स्थान बना हुआ है। चूँकि हिन्दू धर्म के उपर्युक्त बहुत से लक्षण वैदिक धर्म से भिन्न हैं अतः विद्वानों का मानना है कि ये अनार्य सभ्यता की देन है और संभवतः उनका मूल स्रोत सिन्धुवासियों का धर्म रहा हो।

वैदिक धर्म की विस्तृत विवेचना कीजिए

यदि पुरातत्त्व की दृष्टि से भारतीय धर्म का विकसित रूप सर्वप्रथम सिन्धु सभ्यता में दिखाई देता है तो साहित्य की दृष्टि से इसका परिपक्व रूप सर्वप्रथम वेदों में मिलता है। बौद्धिक चिन्तन की स्वतन्त्रता के फलस्वरूप हमारे देश में समय-समय पर अनेक धर्मों तथा सम्प्रदायों का उदय हुआ। धार्मिक क्षेत्र में भारत में जो विभिन्न परीक्षण हुए उनके फलस्वरूप आधारभूत धार्मिक विचारों की प्रतिष्ठा हुई, जैसे बहुदेववाद और एकेश्वरवाद, मानववाद, यज्ञों की प्रधानता आदि का विचार सर्वप्रथम हमें वेदों में मिलता है।

वेद सत्य है, सत्य काल से परे है, अतः वेद शाश्व है। वेद शब्द ‘विद्‘ ज्ञाने धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ ज्ञान हुआ। चिन्तन, दर्शन और साक्षात्कार के क्षणों में जो ज्ञान रश्मियाँ ऋषियों के मन-पटल पर अवतीर्ण हुई, वे शब्दों और प्रतीक के माध्यम से वेद के मंत्रों और सूक्तों के रूप में प्रकट हुई। यह दिव्य ज्ञान सामयिक परिभाषाओं और परिकल्पनाओं में ग्रथित होकर एक विशेष सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में प्रस्फुटित हुआ और उसके अनुरूप एक विशेष धार्मिक उपचार, अचार-संहिता और जीवन-शैली का निर्माण हुआ।

  • इस प्रकार से वेद शाश्वत होते हुए भी इसका बाहरी परिधान ऐतिहासिक है और यह भारतीय संस्कृति में रहा। विकास की एक विशेष अवस्था का सूचक है।
  • वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद.
  • ऋग्वेद इन चारों में सबसे प्राचीन है। इसमें 10 मण्डल, 1029 शूक्त और कुल 1058 ऋचायें हैं।
  • ऋग्वेद के सूक्त विविध देवताओं की स्तुति करने वाले भाव भरे गीत हैं तथा इनमें भक्ति भावना की प्रधानता है।
  • यजुर्वेद मूलतः यज्ञों का वेद है। इसमें यज्ञों और हवनों के नियम और उसक विधान हैं। यह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है।
  • सामवेद में उन मंत्रों का संकलन है, जिनको गाकर देवताओं का आह्वान किया जाता है। यज्ञ, अनुष्ठान और हवन के समय ये मंत्र गाये जाते हैं।
  • अथर्ववेद में भूत-प्रेत, जादू-टोने आदि के मंत्र है। धार्मिक दृष्टि से ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों का बड़ा महत्त्व है। अथर्ववेद से स्पष्ट है कि कालान्तर में वैदिक आर्यों में प्रकृति पूजा गौण हो गई थी तथा प्रेत-आत्माओं व तंत्र-मंत्र में विश्वास किया जाने लगा था।

वेद का भाषाबद्ध रूप सिन्धु-सरस्वती के प्रदेश में विकसित हुआ। मानव संस्कृति के उषाकाल से ही इस प्रदेश में बसे हुए लोगों ने, जिन्हें आचार-विचार की पवित्रता के कारण ‘आर्य कहा जाता था, दिव्य ज्ञान की ज्योति को वेद की भाषा में संग्रहीत किया। अतः वेद-भारतीय धर्म और संस्कृति का शाश्वत और अक्षय कोष हैं। प्रारम्भ में वेदों का पठन-पाठन मौखिक था। विद्वानों के सम्प्रदाय अपने-अपने ढंग से इसका परायण करते थे। इससे विभिन्न पाठ-परम्पराएँ चल पड़ी थीं। गुरु-शिष्य परम्परा व पिता-पुत्र परम्परा द्वारा ये मंत्र ऋषि-वंशों में स्थिर रहते थे और उन्हें श्रुति (श्रवण) द्वारा शिष्य गुरु से, या पुत्र पिता से जानता था। इस कारण उन्हें श्रुति भी कहा जाता था। विविधि ऋषि-वंशों में जो विविध शूक्त श्रुति द्वारा चले आते थे, धीरे-धीरे बाद में उनको संकलित किया जाने लगा। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का प्रधान श्रेय मुनि वेदव्यास को है। वे महाभारत युद्ध के समकालीन थे तथा असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान थे। वेदव्यास ने वैदिक सूक्तों को संहिता रूप में संग्रह किया। उनके द्वारा संकलित वैदिक संहिताएँ चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

  • भारतीय धर्म का विकास किस प्रकार हुआ, यह ज्ञान वेदों के अध्ययन से ही सम्भव है। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य को प्रायः चार भागों में बाँटा जा सकता है- (1) संहिता, (2) ब्राह्मण (3) आरण्यक, और (4) उपनिषद् ।
  • वेद के धार्मिक उपचार का वर्णन करने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थ की रचना हुई। इनके दो भाग हैं—विधि (नियम) और अर्थनाद (आख्यानों, पुराणों और इतिहास द्वारा नियमों के अर्थ की व्याख्या) ।
  • प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण हैं। ऋग्वेद के कोषितकी या सांख्यायान और ऐतरेय ब्राह्मण, कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय ब्राह्मण, शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण, सामवेद के ताण्ड्य महाब्राह्मण या पंचविश ब्राह्मण, छान्दोग्य का मंत्र ब्राह्मण और सामविधान ब्राह्मण और अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण
  • इन ब्राह्मणों के परिशिष्ट’ आरण्यक‘ कहलाते को हैं और उनके अन्तिम भाग ‘उपनिषद्‘ है।
  • इस समस्त साहित्य के अध्ययन की सुविधा के लिए शिक्षा (स्वर ध्वनि), छन्द, निरुक्त, व्याकरण, ज्योतिष और कल्प नामक छ: विधायें हैं, जिन्हें वेदांग कहते हैं।
  • कल्प के तीन विभाग हैं- श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र और धर्म सूत्र। यह विश्व का एक महान् आश्चर्य है कि इतना विशाल साहित्य मौखिक संक्रमण द्वारा अत्यन्त शुद्ध रूप में सुरक्षित रहा।

“सैन्धव धर्म आधुनिक हिन्दू धर्म के काफी निकट है।” इस कथन को उदाहरण सहित समझाइये ।

वैदिक धर्म सादा तथा सरल था। प्रकृति के चमत्कारों को देखकर वैदिक आर्यों के हृदय में अनुराग, विस्मय और भय उत्पन्न कर दिया। अतः उन्होंने प्रकृति के समक्ष नतमस्तक होकर और उसकी प्रमुख शक्तियों की देवताओं के रूप में प्रतिष्ठा कर दी। इस प्रकार के दैवीकरण के साथ आर्यों के धर्म अर्थात् वैदिक धर्म का आरम्भ हुआ। वैदिक आर्य दैवी शक्तियों तथा प्राकृतिक शक्तियों, जैसे सूर्य, चन्द्र, आकाश, उषा, मेघ-ध्वनि, मारुत तथा वायु की उपासना करते थे। जहाँ नों कहीं भी आर्यों को किसी जीवित शक्ति का आभास मिला, वहीं उन्होंने एक देवता की सृष्टि कर हो दी। अतः अपनी आरम्भिक अवस्था में देवगण प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक मात्र थे। प्रकृति के प्रत्येक रूप में देवता की कल्पना करने के कारण वैदिक धर्म में बहुत से देवताओं की प्रतिष्ठा हो गई। अतः ऋग्वैदिक धर्म बहुदेववादी था। सर्वप्रथम आर्यों ने ‘द्यौस’ (आकाश) तथा ‘पृथ्वी’ ‘ की पूजा की। उनका विश्वास था कि दोनों की अनुकम्पा से ही मानव-जीवनयापन सम्भव था । इन दोनों को अन्य सभी देवताओं का जन्मदाता मान लिया गया। प्रकृति की इन दो शक्तियों का यह सरलतम मानवीकरण था। मानवीकरण के इस सिद्धान्त से प्रेरित आर्यों ने ब्राह्य जगत की अन्य शक्तियों को भी देवी-देवताओं का रूप दे डाला। आकाश देवता को ‘वरुण‘ कहा जाने लगा। ये पृथ्वी और आकाश के मध्य में विद्यमान समस्त वस्तुओं में वरुण का वास माना गया। ऋग्वेद में वरुण के दो रूपों का उल्लेख मिलता है। एक रूप में सुख-समृद्धि देने वाला, सहृदय, सृष्टि के निर्माता का, तो दूसरा रूप है विनाश तथा अभिशाप-दान का। उसमें आसुरी शक्ति की भी कल्पना की गई है, उसकी भक्ति, पूजा, तथा प्रार्थना से वह प्रसन्न हो जाता है और पापियों के पाप क्षमा कर देता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि वरुण की उपासना से ही आर्यों में कर्मवाद और भक्ति मार्ग के सिद्धान्तों का उदय हुआ।

वरुण के साथ ही ‘मित्र’ की भी पूजा की जाने लगी। आर्यों ने बहिर्जगत् के प्रकाश का मानवीकरण करके उसे ‘मित्र’ का नाम दिया। दोनों को संयुक्त रूप से ‘मित्रावरुण‘ कहा जाने लगा। बहिर्जगत में सूर्य का महत्त्व भी किसी से कम नहीं है। अतः आर्यों ने इसे भी अपना देवता मान लिया। उसे सम्पूर्ण चर-अचर का रक्षक तथा मनुष्यों के समस्त सत्-असत् कर्मों का दृष्टा माना गया। सूर्य के व्यापक रूप को ‘सविता‘ नाम दिया गया। सविता में सूर्य का व्यक्त तथा रात्रि को अव्यक्त रहने वाला रूप दोनों ही सम्मिलित हैं। सविता को पाप-मोचन देवता के रूप में भी माना गया है।

विष्णु नामक देवता को विश्व का संरक्षक माना गया है। भक्तों की प्रार्थना पर तुरंत सहायता को पहुँचने वाला देवता है। ऋग्वेद में उसके तीन पदों का उल्लेख है, जिसके अनुसार वह समस्त ब्रह्माण्ड में भ्रमण करता है। उसके इस व्यापक स्वरूप के कारण उसे ‘वृहद् शरीर ‘उरु-गाय’ (व्यापक रूप से गमनशील), ‘उरु क्रम’ (व्यापक रूप से अभिक्रमा करने वाला आदि नामों से भी पुकारा गया है। विष्णु के समान ही अग्नि का भी विशेष महत्त्व है और बर पैमाने पर उसकी प्रार्थना की जाती थी। ऋग्वेद में अग्नि की प्रार्थना सम्बन्धी लगभग 200 मंत्र हैं, जो उसकी लोकप्रियता और महत्त्व को प्रकट करते हैं। यज्ञ में अग्नि का विशेष महत्त्व था इसीलिए उसे ‘पुरोहित’, ‘ यज्ञिय’ और ‘होता‘ नाम से पुकारा गया है। उसे देवताओं का मुख मान गया है, क्योंकि उसी के द्वारा आहुति सभी देवताओं के पास पहुँचती है। दाह-कर्म के लिए भी अग्नि अनिवार्य थी। अग्नि को समस्त लोक के राक्षसों को भगाने वाला कहा गया है। वैदिक आर्य सोमरस के प्रेमी थे। इसलिए उन्होंने इसे भी देवता मान लिया। उसे सूर्य और विद्युत् से उत्पन्न हुआ बताया गया। ऋग्वेद में सोम की प्रार्थना के अनेक मंत्र हैं।

आँधी, तूफान और वर्षा का देवता इन्द्र था। ऋग्वेद में इसे सर्वाधिक शक्तिशाली देवता माना गया है। उसे आकाश, अन्तरिक्ष और पृथ्वी से भी अधिक बड़ा माना गया है। एक स्थान पर उसे वृत्र ही हत्या करके बादलों में रुके हुए जल को मुक्त कराने वाला कहा गया है। वृत्र को शीत, कोहरे और पाले का असुर माना गया है। ऋग्वेद में इन्द्र की प्रार्थना सम्बन्धी लगभग 250 ऋचाएँ। उपर्युक्त देवताओं के अलावा ऋग्वेद में मारुत, वात, पर्जन्य, अश्विन, यम, रुद्रू, पूषण आदि देवताओं का भी उल्लेख है। देवियों में उषा, अदिति, सिन्धु, आरुयानी और सरस्वती के नाम उल्लेखनीय हैं। उषा का अर्थ है-अरुणोदय के पूर्व की वेला । अदिति का अर्थ है-सर्वव्यापिनी प्रकृति । आरुयानी का तात्पर्य वन-देवी से है और मानवी बुद्धि का दैवीकरण सरस्वती के रूप में किया गया था।

देवी-देवताओं के वर्ग

ऋग्वेद में 33 देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें तीन वर्गों में बाँटा गया है-

  1. आकाशीय देवता,
  2. अन्तरिक्षीय देवता, तथा
  3. पृथ्वी के देवता।
  • आकाश के देवता में द्यौस, वरुण, मित्र, सूर्य, सविता, पूषण, उषा, अदिति तथा अश्विन आदि सम्मिलित थे।
  • अन्तरिक्षीय देवताओं में इन्द्र, मरुत, वात, पर्जन्य आदि आते हैं।
  • पृथ्वी के देवताओं में स्वयं पृथ्वी, अग्नि, सोम, वृहस्पति, सरस्वती आदि आते थे।

किसी वस्तु में मानवीय गुणों का आरोपीकरण करना मानवीकरण कहलाता है। वैदिक आर्यों ने अपने देवी-देवताओं की कल्पना मानव के रूप में की। परन्तु उनमें मानवीय अवगुण नहीं थे। वे अमर, परम शक्तिवान तथा उदार थे। उनके देवी-देवता सदाचार तथा नैतिकता के प्रतीक थे। विविध प्रकार के देवी देवताओं की कल्पना करने पर भी वैदिक आर्य एकेश्वरवाद (एक सत्) की भावना को भी समझ चुके थे। प्रारम्भ में आर्यों ने ‘वरुण’ को देवातिदेव माना, परन्तु बाद में उसका स्थान ‘इन्द्र’ ने ले लिया। आर्यों ने यह भी अनुभव कर लिया कि ‘इन्द्र’ के ऊपर भी कोई एक परमसत्ता है, जो समूचे ब्रह्माण्ड को संचालित करती हैं।

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