सैन्धव सभ्यता के विस्तार क्षेत्र की विवेचना करते हुए बताइये कि इस सभ्यता के निर्माता कौन थे?

सिन्धु-घाटी की सभ्यता / Indus Valley Civilization/ Sindhu Ghati Sabhyata 

पुरातत्व (archeology) की दृष्टि से भारतीय धर्म और संस्कृति (Indian religion and culture) का विकसित रूप सर्वप्रथम सिन्धु घाटी (Indus Valley Civilization) के क्षेत्र में मिलता है। वस्तुतः भारतवर्ष का इतिहास तो मानव-सभ्यता (human civilization) के प्राचीन पाषाण-युग (Stone Age) के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है, परन्तु देश की सुविकसित सभ्यता (civilization)  एवं संस्कृति (culture) का इतिहास सिन्धु घाटी (Indus Valley civilization) की सभ्यता से ही प्रारम्भ होता है, जो वैदिक सभ्यता (Vedic civilization) से भी प्राचीन है। चूँकि सिन्धु-घाटी की सभ्यता के अधिकांश भग्नावशेष (ruins)  सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियों में उपलब्ध हुए है, इसलिए इसे ‘सिन्धु-घाटी की सभ्यता‘ (Indus Valley Civilization) अथवा ‘सैन्धव सभ्यता‘ (Sindhu Civilization) के नाम से पुकारा जाता है। इसे ‘हडप्पा- संस्कृति‘ (Harappa Culture) के नाम से भी पुकारा जाता है, क्योंकि हडप्पा नगर और उसके आस-पास का क्षेत्र सिन्धु-घाटी की सभ्यता का केन्द्र-स्थान रहा था।

अतीत के खण्डहरों में दबी पड़ी सिन्धु-घाटी की सभ्यता के उत्खनन का कार्य सर्वप्रथम 1920 ई. में हडप्पा में ही शुरू किया गया था। हडप्पा, पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) के माण्टगोमरी (Montgomery) जिले में लाहोर से लगभग 100 मील दूर दक्षिण-पश्चिमी में रावी नदी के तट पर है । उत्खनन कार्य करवाने वालों में श्री दयाराम साहनी (Shri Dayaram Sahni) तथा श्री माधोस्वरूप वत्स (Shri Madhoswaroop Vats)अग्रणीय थे । इसके बाद 1922 ई. में श्री राखलदास बनर्जी (Shri Rakhaldas Banerjee) के नेतृत्व में सिन्ध प्राप्त (पाकिस्तान) के लरकाना जिले में खुदाई का काम किया गया, जिसके फलस्वरूप मोहनजोदड़ो (Mohenjodaro) के भव्य नगर के अवशेष उपलब्ध हुए। यद्यपि इन दोनों स्थानों के बीच लगभग 350 मील की दूरी है, किन्तु दोनों स्थानों की खुदाई में प्राप्त अवशेषों में अद्भुत साम्यता थी और उनके तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर सर जॉन मार्शल (Sir John Marshall) ने यह सिद्ध कर दिया कि ये अवशेष किसी अति प्राचीन पूर्व- ऐतिहासिक सभ्यता (pre-historic civilization) के प्रतीक है। इस प्राचीन सुविकसित सभ्यता (well-developed civilization) की खोज का काम निरन्तर चलता रहा।

अर्नेस्ट मैके, एन. जी. मजूमदार, सर ऑरल स्टीन, एच. हारग्रीब्ज, पिगट, व्हीलर, रंगनाथराव, सांकलिया, बी.वी. लाल, वी.के. थापर आदि पुरातत्ववेत्ताओं (Archaeologists) ने खोज और खनन के कार्य को आगे बढ़ाया। इन लोगों की खोजों के फलस्वरूप पता चला कि सिन्धु-घाटी की सभ्यता केवल सिन्धु-घाटी (Indus Valley) तक ही सीमित नहीं रही। इन खोजों से स्पष्ट हो गया कि ईसा से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व बलूचिस्तान (Balochistan) से पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक और अफगानिस्तान से गुजरात और सौराष्ट्र तक तथा राजस्थान में एक महान् संस्कृति विद्यमान थी, जिसका विकास वैयक्तिक रूप से हुआ और जिसकी निजी विशेषताएँ है। भारत की स्वतन्त्रता के बाद व्यापक स्तर पर उत्खनन कार्य किया गया, जिसके परिणामस्वरूप उपर्युक्त क्षेत्रों के बहुत से स्थानों पर हडप्पा सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए है। वर्तमान में भी कुछ स्थानों पर उत्खनन एवं खोज कार्य चल रहा है। जिससे आगे चलकर नये तथ्यों का पता लग सकेगा।

सिन्धु-घाटी की सभ्यता का विस्तार क्षेत्र / Expansion area of ​​Indus Valley Civilization / sindhu ghati sabhyata ka vistar kshetra

  • पुरातात्विक खोजों (Archaeological discoveries) से यह सिद्ध हो गया है कि सिन्धु-घाटी की सभ्यता का विस्तार क्षेत्र अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्ध, पंजाब, पश्चिमी राजस्थान, गुजरात एवं उत्तरी भारत में गंगा-घाटी तक व्याप्त था।
  • मोहनजोदड़ो और हडप्पा, सिन्धु-घाटी की सभ्यता के दो प्रमुख केन्द्र रहे होंगे।
  • अफगानिस्तान में क्वेटा, कीली, गुलमुहम्मद, मुण्डिगक नदी के किनारे-किनारे तथा डम्बसदात में भी सिन्धु-घाटी की सभ्यता के प्राचीनतम अवशेष प्राप्त हुए हैं।
  • बलुचिस्तान के उत्तर-पूर्व में लोरलाय घाटी तथा जोब नदी की घाटी में भी सिन्धु-घाटी की सभ्यता के बहुत से अवशेष मिले हैं। विद्वानों की मान्यता है कि दक्षिणी बलूचिस्तान की कुल्ली सभ्यता सम्भवत: सिन्धु-घाटी की सभ्यता का ही प्रारम्भिक रूप रही होगी।
  • सिन्धु में अमरी नामक स्थान तथा इसके उत्तर-पूर्व में स्थिति कोटदीजी नामक स्थान पर जो अवशेष मिले है उन्हें भी सिन्धु-घाटी की सभ्यता का प्रारम्भिक रूप माना जा सकता है।
  • इसी प्रकार राजस्थान प्रान्त के बीकानेर क्षेत्र में कालीबंगा नामक क्षेत्र में जो अवशेष मिले हैं, उनमें से कुछ तो सिन्धु-घाटी की सभ्यता से भी पहले के प्रतीत होते हैं और शेष अवशेष सिन्धु-घाटी की सभ्यता से साम्य रखते हैं।
  • पंजाब में रोपड़ तथा गुजरात में लोथल और रंगपुर नामक स्थानों से प्राप्त अवशेष भी सिन्धु-घाटी की सभ्यता के समकालीन प्रमाणित होते है।

उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अविभाजित भारत में सिन्धु-घाटी की सभ्यता पश्चिम में अरब सागर के तट के समीप सुत्कगेण्डोर से लेकर पूर्व में आलमगीरपुर (मेरठ जिला) एवं विलुप्त सरस्वती नदी के किनारे तथा उत्तर में शिमला की पहाड़ियों की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्बदा और ताप्ती नदियों के मध्य स्थित भगवार तक के क्षेत्र में फैली हुई थी। श्री रंगनाथराव ने सिन्धु-घाटी की सभ्यता के क्षेत्र का विस्तार पूर्व से पश्चिम लगभग 1600 किलोमीटर और उत्तर से दक्षिण लगभग 1100 किलोमीटर नापा है। इस विस्तृत भू-भाग कुछ विशाल नगर, कुछ कस्बे तथा कुछ ग्राम थे।

सिन्धु-घाटी की सभ्यता के निर्माता

सिन्धु-घाटी की सभ्यता के निर्माता कौन थे ? यह प्रश्न आज भी विवादास्पद बना हुआ है। इस सम्बन्ध में विद्वानों की तीन मान्यताएँ प्रचलित है।

  1. पहली मान्यता के अनुसार वे लोग मिश्रित जाति या नस्ल के थे। दूसरी के अनुसार वे लोग द्रविड़ थे और तीसरी के अनुसार वे लोग आर्य थे। प्रथम मान्यता के समर्थक कर्नल स्युअल और डॉ. गुहवा का कहना है कि सिन्धु-घाटी की सभ्यता का निर्माण किसी एक नस्ल अथवा जाति के लोगों ने नहीं किया। सिन्धु-घाटी की सभ्यता नागरीय सभ्यता थी। इसके मुख्य नगर व्यापार-वाणिज्य के प्रमुख केन्द्र बने हुए थे। अत: आजीविका की तलाश में अनेक प्रजातियों के लोग यहाँ आकर बस गये थे। सिन्धु सभ्यता के विभिन्न केन्द्रों की खुदाई में प्राप्त नर-कंकालों की शारीरिक बनावट के विश्लेषण के आधार पर मानवशास्त्रवेत्ताओं ने सिन्धु-घाटी की सभ्यता का विकास करने वाले लोगों को चार नस्लों-आदिम आग्नेय, मंगोलियन, भूमध्यसागरीय तथा अल्पाइन, से सम्बन्धित बताया है। इनमें से मंगोलियन तथा अल्पाइन नस्ल के लोगों की केवल एक-एक खोपड़ी मिली है।
  2. दूसरी मान्यता के विद्वानों का कहना है कि चूँकि खुदाई में प्राप्त नर-कंकालों में भूमध्यसागरीय नस्ल की प्रधानता है, अत: सिन्धु-घाटी की सभ्यता के निर्माण का श्रेय द्रविड़ों को दिया जाना चाहिये। द्रविड़ लोग भूमध्यसागरीय नस्ल की ही एक शाखा थे। सर जॉन मार्शल इस मत के प्रबल समर्थक है। कुछ विद्वान् ब्लूचिस्तान आदि भागों में बोली जाने वाली ‘ब्राहुई‘ भाषा तथा द्रविड़ों की भाषा में समानता के कारण भी द्रविड़ों को सिन्धु-घाटी की सभ्यता का निर्माता मानते है। प्रोफेसर चाइल्ड ने सुमेरियन लोगों को सिन्धु-घाटी की सभ्यता का निर्माता माना है। डॉ. हाल ने भी उनके मत की पुष्टि की है, परन्तु वे द्रविड़ों को सुमेरियन जाति का अंग भी मानते है। श्री पिगट के अनुसार सिन्धु-घाटी की सभ्यता का मूल पूर्णतया भारतीय था, परन्तु वे इस पर सुमेरियन प्रभाव को भी स्वीकार करते है।
  3. तीसरी मान्यता के विद्वानों-लक्ष्मणस्वरूप, रामचन्द्र, शंखरानन्द, दीक्षितार तथा पुसालकर-के अनुसार सिन्धु-घाटी की सभ्यता के निर्माता आर्य थे अथवा आर्यों ने भी इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान अवश्य दिया होगा।

डॉ. पुसालकर के शब्दों में, “यह आर्य और अनार्य सभ्यताओं के मिश्रण का प्रतिनिधित्व करती है। अधिक से अधिक हम यह कह सकते है कि सम्भवतया उस समय में ऋग्वैदिक आर्य वहाँ की जनता का एक महत्त्वपूर्ण भाग थे और उन्होंने भी सिन्धु-घाटी की सभ्यता के विकास में अपना योग दिया।”

वस्तुतः जब तक सिन्धु-घाटी की सभ्यता के स्थलों की खुदाई में प्राप्त मोहरों पर अंकित लिपि को भली प्रकार पढ़ नहीं लिया जाता तब तक यह कहना कठिन होगा कि सिन्धु-घाटी की सभ्यता को जन्म देने और विकसित करने वाले लोग किस जाति या नस्ल के थे? लेकिन इसकी कुछ बातें ऐसी है जो दुनिया में कहीं नहीं मिलती जैसे इसमें मकान पक्की इंटों के बनाये जाते थे, जबकि सुमेरियन कच्ची इंटों के मकान बनाते थे; इसमें न तो सुमेरी शहरों की तरह मन्दिर मिले है और न मिस्री नगरों जैसे महल या मकबरे, इसमें पीपल की पूजा, बैल का महत्त्व, स्नान-ध्यान और सफाई आदि अपनी तरह के धार्मिक अचार-विचार के जो अवशेष और चिन्ह मिले है वे अब तक और कहीं नहीं दिखाई दिये। इसमें मिला खास ढंग का सामान स्पष्ट करता है कि सैन्धव संस्कृति इस देश की अपनी चीज है और यहाँ सैकड़ों और हजारों साल से चले आ रहे रहन-सहन के विकास का फल है, जिसे ऐतिहासिक दृष्टि से किसी और संस्कृति से जोड़ने का कोई प्रमाण कही नहीं मिलता।

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