भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषताओं का विवेचन कीजिए। part 1
भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ
भारतीय इतिहास को प्रारम्भ हुए हजारों वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। हजारों वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति का उद्भव और विकास हो चुका था। किन्तु भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों और उसकी विशेषताओं को आज भी देखा जा सकता है। यद्यपि इस संस्कृति ने हजारों वर्षों के दीर्घकाल में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, फिर भी भारतीय संस्कृति मूलभूत ढाँचा, अपनी उन्हीं विशेषताओं के साथ, आज भी ज्यों-का-त्यों विद्यमान है। अतः उसकी विशेषताओं का विवेचन करना समीचीन होगा।
(1) संस्कृति की प्राचीनता
भारतीय संस्कृति की गणना विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में की जाती है। विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियाँ उच्चस्तरों को प्राप्त कर कालान्तर में समाप्त हो गई। आज प्राचीन यूनानी व रोमन धर्मों का अनुयायी कोई नहीं है। मिस्र, असीरिया, बेबीलोनिया, क्रीट, यूनानी और रोमन धर्मों का संस्कृति काल के कराल गाल में समा चुकी है। सम्पूर्ण विश्व में चीन और भारतीय संस्कृति को छोड़कर अन्य किसी भी प्राचीन संस्कृति का कोई नामलेवा भी नहीं बचा है। परन्तु भारत की प्राचीन संस्कृति हजारों वर्ष बीत जाने पर भी अब तक कायम है। यों तो भारतीय संस्कृति सनातन है, लेकिन इसके ज्ञान का इतिहास सैन्धव युग से प्रारम्भ होता है। सैन्धव सभ्यता के धर्म, कृषि कर्म, पशुपालन व्यवस्था, पूजन-अर्पण, स्नान-ध्यान आभूषण, स्थापत्य, लिपि और आयुध इन सबका प्रभाव परवर्ती युगों पर स्पष्टतः परिलक्षित होता है। तत्पश्चात् वैदिक संस्कृति का वर्चस्व प्रारम्भ हुआष इसमें उदात्त आदर्श रखने वाली आर्य जाति विपुल जीवन-समृद्धि लेकर आई। आर्यों और दासों (अनार्यों) के बीच संघर्ष हुए और वर्ण- व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। दक्षिण से द्रविड़ों के स्थापत्य, साहित्य, नगर निर्माण आदि देखकर उनकी संस्कृति की गहराई का बोध होता है। वेदों में आर्यों और अनार्यों के बीच संघर्ष का उल्लेख तो मिलता है, लेकिन आर्यों का अन्य किसी से संघर्ष का इतिहास नहीं है, बल्कि सभी के सहयोग एवं समन्वय से एक भव्य संस्कृति का निर्माण हुआ, जिसे कालान्तर में ‘हिन्दू संस्कृति’ कहा गया। इसमें वैदिक और श्रमण सांस्कृतिक धाराओं का समन्वय हुआ । अतः भारत का धर्म आज भी वैदिक है । इस देश के पुरोहित व ब्राह्मण आज भी वेद मन्त्रों द्वारा यज्ञ-कुण्ड में आहुति देकर देवी-देवताओं को तृप्त करते हैं। उपनिषदों और गीता ने ज्ञान की जो धारा प्रवाहित की थी, वह आज भी निर्बाध रूप से इस देश में बह रही है। महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी ने अहिंसा और शान्ति का जो उपदेश दिया था, वह आज भी इस देश में जीवित और जागृत है। यहाँ की स्त्रियों का आदर्श आज भी सीता, सावित्री और पार्वती है। पूर्व मध्यकाल में जब इसका विकास रुक-सा गया था, तब नाथों, सिद्धों और विशेषतः मध्यकालीन सन्तों और भक्तों ने इसकी पुनर्व्याख्या की। इसी प्रकार मुगल काल में हिन्दू व मुस्लिम संस्कृतियों का समन्वय हुआ तथा एक समन्वयात्मक संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ, लेकिन उस समन्वयात्मक संस्कृति में प्राचीन संस्कृति के मूलभूत तत्त्व विद्यमान थे। इन सभी उतार-चढ़ावों के बीच हमारी सांस्कृतिक विशेषताएँ विलुप्त नहीं हुई। मुगल साम्राज्य के बाद स्थापित होने वाले ब्रिटिश शासन के दौरान भारत का पुनर्जागरण हुआ। लेकिन इस पुनर्जागरण में भी प्राचीन भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व विद्यमान थे। युगों युगों के बीत जाने के बाद आज भी हमारे जीवन-मूल्य और आदर्श वहीं हैं जो वैदिक काल के थे। भारतीय संस्कृति की यह प्राचीनता और स्थिरता भारतीय जीवन के प्रति उसकी अनुकूलता और उपयोगिता स्पष्ट रूप से प्रकट करती है। यह सत्य है कि कालान्तर में उसमें अनेक मिलावटें आ गई थी। फिर भी मूल रूप से भारतीय संस्कृति के अनेक अंग, भारत के लिए ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व के लिए मूल्यवान और आवश्यक बताये जाते हैं।
अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान विल ड्यूरेण्ट ने भारतीय संस्कृति की प्राचीनता का उल्लेख करते हुए लिखा है, “यहाँ ईसा से 2900 वर्ष पहले या इससे भी पहले मोहनजोदड़ों से महात्मा गाँधी, रमण और टैगोर तक उन्नति और सभ्यता का शानदार सिलसिला जारी रहा है। ईसा से आठ शताब्दी पहले उपनिषदों से आरम्भ होकर ईसा के आठ सौ वर्ष बाद शंकर तक ईश्वरवाद के हजारों रूप प्रतिपादित करने वाले दार्शनिक यहाँ हुए हैं। यहाँ के वैज्ञानिकों ने तीन हजार वर्ष पहले ज्योतिष का आविष्कार किया और इस जमाने में भी नोबल पुरस्कार जीते हैं। कोई भी लेखक मिस्र, बेबीलोनिया और असीरिया के इतिहास की भाँति भारत के इतिहास को समाप्त नहीं कर सकता, क्योंकि भारत में अभी तक इतिहास का निर्माण हो रहा है, उसकी सभ्यता अब भी क्रियाशील है।”
कवि इकबाल के शब्दों में,
“यूनान, मिस्र, रोमाँ सब मिट गये जहाँ से,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।”
(2) संस्कृति की आध्यात्मिकता
किसी भी देश की संस्कृति अपने को धर्म, दार्शनिक विचार, कविता, साहित्य और कला आदि के रूप में अभिव्यक्त करती है। भारतीय संस्कृति ने अपने को जिस रूप में अभिव्यक्त किया, वह है- अध्यात्म की भावना । भारतीय संस्कृति प्रकृत्या आध्यात्मिकता या धर्म प्रधान है। भारतीय संस्कृति के आलोचकों ने भी इसकी इस विशेषता को स्वीकार किया है। इसी विशिष्टता के कारण विश्व की यह महान् संस्कृति है। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता इनको अन्य संस्कृति-धाराओं से पृथक कर देती है। भारत में यह विचार सदा से चला आ रहा है कि, “आँखों से दिखाई देने वाले इस स्थूल संसार से परे भी कोई सत्ता है, जिससे जीवन व शक्ति प्राप्त करके यह प्रकृति फल-फूल रही है।” भारत में यह विचारधारा भी प्रचलित रही कि, “जो अपने को सब में और सबको अपने में देखता है, वही असल में देवता है।”
इसी विचारधारा के कारण देश में धार्मिक या साम्प्रदायिक द्वेष या घृणा उत्पन्न नहीं हुई। यद्यपि महात्मा बुद्ध व महावीर स्वामी ने प्राचीन वैदिक धर्म को चुनौती दी, लेकिन इसका कोई विशेष परिणाम नहीं निकला, बल्कि यहाँ के सनातन वैदिक धर्म ने ही उन्हें अपने में ही लीन कर लिया। बौद्ध दर्शन भी यह मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति में एक बुद्ध की सम्भावना निहित है। ‘सबको को अपने में देखने’ की भावना ने ही यवन, शक, कुषाण आदि विदेशी जातियों को भारतीय समाज का अंग बना लिया। यद्यपि हिन्दू धर्म में अनेक मत एवं सम्प्रदाय रहे, किन्तु सभी सम्प्रदायों की प्रेरक शक्ति अध्यात्म भावना रही है। भारतीय चिन्तन ने लौकिकता एवं आध्यात्मिकता को मूल जीवन के दो परस्पर एवं पृथक ध्रुवों के रूप में स्वीकार नहीं किया है। इन दोनों को पृथक नहीं ‘किया जा सकता। स्वयं लौकिक का सबसे सुन्दर और सबसे उदात्त अलंकरण अध्यात्म है। चाहे राम और सीता हो चाहे कृष्ण, युधिष्ठर या अर्जुन, उनके व्यक्तित्वों का आकर्षण उनकी आध्यात्मिकता में अड़िग आस्था है। कृष्ण तो व्यक्ति को भीतर से प्रेरित करते हैं – अपनी उपस्थिति मात्र से हृदय को निर्मल कर देते हैं। यद्यपि इस्लाम ने भारतीय संस्कृति पर आघात किया, लेकिन भारतीय विचारकों ने तो इस्लाम के साथ भी अपने धर्म के समन्वय का प्रयत्न किया और इसीलिए अल्लोपनिषद्’ की रचना हुई। मुसलमानों का सूफी सम्प्रदाय भारत के अध्यात्मवाद, योग-साधना और रहस्यवाद का मुस्लिम संस्करण है। भारतीय धर्मग्रन्थों में मानव की आधिभौतिक प्रगति के साथ-साथ उसकी आध्यामित्क प्रगति पर भी बल दिया गया है। मानव-जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आध्यात्मिक पद्धतियों पर चलते हुए ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना या अन्य साधनों से सांसारिक जीवन से मोक्ष प्राप्त करना माना गया है। आज भी भारतीयों का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है ।
किसी भी देश की संस्कृति का वास्तविक रूप जानने के लिए उस देश के महापुरुषों को जानना है। यदि हम आधुनिक काल में देखें तो यूरोप के महापुरुषों में मार्क्स, डार्विन, फ्रायड, हिटलर, लेनिन और चर्चिल आदि नाम सुविदित है, जबकि इसी युग में भारत के महापुरुष है- परमहंस रामकृष्ण, महायोगी अरविन्द, महर्षि रमण, गुरुदेव टैगोर और महात्मा गाँधी । यद्यपि यूरोप के महापुरुषों की महानता में सन्देह नहीं किया जा सकता, किन्तु यूरोप के महापुरुषों में राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, अधिनायक आदि है जबकि भारत के महापुरुष सन्त, योगी और महात्मा है जिनके जीवन दर्शन में आध्यात्मिकता कूट-कूटकर भरी हुई है। यह भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता का अकाट्य प्रमाण है।
(3) संस्कृति की सहिष्णुता
विविध सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णुता और सम्मान का भाव भारतीय संस्कृति का प्रधान अंग रहा है। भारतीयों को धर्म ने यह सिखाया है कि बाह्य संसार की अनेकता के परे एक परमसत्य है। यही परम सत्य भौतिक संसार की अनेकता के मूल में है। अर्थात् बाह्य अनेकता भ्रामक है, सत्य नहीं, इस सत्य को भारतवासियों ने जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि उनका दृष्टिकोण उदार और सहिष्णु हो गया। धर्म के क्षेत्र में यह उदारता विशेष रूप से दिखाई देती है।
सम्राट अशोक ने इस भावना को कितने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है, “लोग केवल अपने ही सम्प्रदाय का आदर और बिना कारण दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा न करें। जो व्यक्ति ऐसा करता है, वह अपने सम्प्रदाय को भी क्षति पहुँचाता है और दूसरे सम्प्रदाय का भी अपकार करता है। लोक एक-दूसरे के धर्म को ध्यान से सुनें और उसकी सेवा करें क्योंकि सभी सम्प्रदाय वाले बहुत से विद्वान् कल्याण का कार्य करते हैं।”
अशोक द्वारा प्रतिपादित यह भावना भारत के सम्पूर्ण इतिहास में ओत-प्रोत रही है। भारत में बाहर से इस्लाम यहूदी, पारसी और ईसाई धर्म समय-समय पर आये और यहाँ फले-फूले। स्वयं भारत भी हिन्दू बौद्ध, जैन, सिख आदि अनेक धर्मों की जन्मभूमि है। हिन्दू धर्म के अन्तर्गत कितने ही सम्प्रदाय है, जिनके सिद्धान्त एक-दूसरे में सर्वथा भिन्न प्रतीत होते हैं। सम्भवतः विश्व का ऐसा कोई महत्त्वपूर्ण धर्म और सम्प्रदाय नहीं होगा जिसके अनुयायी भारत में न पाये जाते हो। इतनी अधिक विविधता होते हुए भी यहाँ राजाओं ने धार्मिक दृष्टि से अत्याचार नहीं किये और न साम्प्रदायिक युद्ध ही हुए। जो एक-दो उदाहरण इस प्रकार के अत्याचारों व साम्प्रदायिक संघर्ष के यहाँ मिलते हैं, वे अपवादस्वरूप हैं और वे भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा को सूचित नहीं करते। किन्तु यूरोप में धर्म की दृष्टि से न केवल एक धर्म ने दूसरे धर्म पर, परन्तु अपने ही धर्म में विभिन्न मतावलम्बियों पर जो भीषण अत्याचार किये, उनसे यूरोपियन इतिहास के अनेक पृष्ठ रक्तरंजित हैं।
भारतीयों ने सदैव इस सिद्धान्त पर विश्वास किया है कि ईश्वर अव्यक्त और अचिन्तय है और विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय उसको प्राप्त करने के मार्ग है। ये मार्ग देखने में अलग-अलग हैं परन्तु इनका लक्ष्य एक ही है। इस सिद्धान्त में आस्था रखने पर धार्मिक वैमनस्य का प्रश्न ही नहीं उठता। यह बात ध्यान देने योग्य है कि धार्मिक सहिष्णुता की यह भावना वैदिक काल से आधुनिक युग तक निरन्तर दिखाई देती है।
ऋग्वेद में कहा गया है-एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति (एक ही भगवान का ज्ञानी नाना रूप से वर्णन करते हैं)।
गीता में इसी विचार को पराकाष्ठा तक पहुँचाया गया।
अद्वैत वेदान्त अनुसार जो ‘एक’ को देखता है, उसके लिए ‘दूसरा’ है ही नहीं।
जैन मत के अनेकान्तवाद के अनुसार सत्य एक ही है, लेकिन देखने वाले की दृष्टि एकांगी होने के कारण उसे एक ही पक्ष दिखाई देता है।
भारतीय संस्कृति में साधना के अनेक मार्ग बताये गये हैं, जैसे- ज्ञान, भक्ति, कर्म आदि। अपनी अभिरुचि के अनुसार व्यक्ति अपनी अध्यात्म साधना करता है। भगवान कृष्ण ने तो यहाँ तक कहा है कि, अन्य देवताओं की श्रद्धापूर्वक उपासना करने वाले भी मेरा ही भजन करते हैं। भारतीयों का यह विश्वास था कि भगवान एक अचिन्तय, अव्यक्त, सर्वशक्तिमान सत्ता है, विविध प्रकार की उपासनाएँ उस तक पहुँचने के मार्ग हैं।
जब लक्ष्य एक है तो मार्गों के बारे में झगड़ा क्यों किया जाय। केवल भारतीय धर्म ही नहीं, बल्कि विदेशी धर्मों के साथ भी भारतीयों ने यही व्यवहार किया। अपने देश में सताये हुए फारसी भारत आये और यहाँ के सम्मानित नागरिक बन गये। अरबों के साथ भी यही उदारता बरती गई। इसी विचार को 19वीं शताब्दी में स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने अधिक पुष्ट किया। उनका कहना था कि, “ईश्वर एक है लेकिन उसके विभिन्न स्वरूप हैं। जैसे एक घर का मालिक, एक के लिये पिता, दूसरे के लिये भाई और तीसरे के लिये पति है और विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, उसी प्रकार ईश्वर भी विभिन्न कालों व देशों में भिन्न-भिन्न नामों से व भावों से पूजा जाता है। इसीलिये धर्मों की अनेकता देखने को मिलती है।”
उपर्युक्त धार्मिक विचारधारा का ही परिणाम था कि यहाँ सभी पन्थ और सम्प्रदाय प्रीतिपूर्वक रहते रहे। इसी सहिष्णुता से आर्यों ने अपने से भिन्न अनायों और विधर्मियों की उपासना विधियाँ स्वीकार कर ली। स्वामी विवेकानन्द ने सभी धर्मों की मूल एकता को समझाया। गुरुदेव टैगोर ने सभी धर्मों के मूल मानव धर्म को जानने का प्रयास किया जिसके आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापित हो सके। गाँधीजी ने तो इस सिद्धान्त पर सबसे अधिक बल दिया। भारतीय धार्मिक सहिष्णुता का महत्त्व उस समय और भी स्पष्ट हो जाता है जब हम भारत की तुलना यूरोप से करते हैं। यूरोप में रोमन साम्राज्य के युग से ईसाई धर्म की प्रबलता रही है, परन्तु इतिहास साक्षी है कि वहीं पर ईसाई धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय मिल-जुलकर नहीं रह सके। सम्भवतः यूरोप में धर्म के नाम पर जितना रक्तपात हुआ और जितनी बर्बरता दिखाई उतनी विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं। ऐसा धर्मान्ध दृष्टिकोण भारत में तो सदैव कल्पना से भी परे रहा है।