संस्कृति का अर्थ बताते हुए इसके उद्भव और स्वरूप को समझाइये ।

भारतीय संस्कृति मानव समाज की एक अमूल्य निधि है। अपनी अनेक अप्रतिम विशेषताओं के कारण ही भारतीय संस्कृति को अमर कहा जाता है। भारतीय संस्कृति की पावन धारा का प्रवाह उस धूमिल अतीत से प्रारम्भ होता है, जिसकी सीमाओं के चिन्तन में हमारे अनुमान के पैर लड़खड़ाते है। पिछले पाँच-छ: हजार वर्षों के विस्तृत काल क्षेत्र में, इस पुनीत सरस्वती की संजीवनी धारा कहीं-कहीं इतिहास के अज्ञात प्रखण्डों में खोई हुई-सी प्रतीत होती है। लेकिन अधिक अन्वेषित क्षेत्रों के सुरम्य स्थलों में, पतित पावनी जाह्नवी के समान, उसका प्रवाह विस्तृत, अबाध एवं सुप्रकाशित दिखाई देता है। यदि कहीं-कहीं, वह अनेक ताल-तलैयों में विभाजित हो गई है, तो अन्य स्थानों में उसका विशुद्ध, प्रशान्त और विशाल प्रवाह दर्शक को पुन: चौधिया देता है। परन्तु इस परिव्रज्या की इस दीर्घयात्रा में ऐसा कोई भी स्थल नहीं है, जहाँ पर उसकी हृदयग्राहिकता और पावनता का आभास न मिलता हो। यदि विश्व की कोई संस्कृति अमर कही जा सकती है तो निस्सन्देह भारतीय संस्कृति ही वह संस्कृति है। चीनी संस्कृति के अतिरिक्त विश्व की अन्य सभी मेसोपोटामिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन और रवाल्दी प्रभूति, मिस्र, ईरान, यूनान और रोम की प्राचीन संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी है, केवल कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव गाथा गाने के लिए बचे है। किन्तु भारतीय संस्कृति कई हजार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को सहती हुई आज तक जीवित है और विश्व की जनसंख्या का एक वृहत् भाग उसकी संजीवनी शक्ति के द्वारा ही अनुप्राणित है।

संस्कृति का अर्थ

‘संस्कृति’ शब्द ‘सम’ उपसर्ग-पूर्वक ‘कृ’ धातु से निष्पन्न होता है। यह परिष्कृत अथवा परिमार्जित करने के भाव का सूचक है। इसी प्रकार संस्कृत (शुद्ध किया हुआ) अथवा संस्कार (शुद्ध करने वाले कर्म) शब्द भी निष्पन्न हुए हैं। संस्कृत शब्द के समान ‘संस्कृति’ शब्द में भी परिमार्जन अथवा परिष्कार के अतिरिक्त शिष्टता एवं सौजन्य आदि अर्थों का भी अन्तर्भाव हो जाता है। ‘संस्कृति’ शब्द मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों, नैसर्गिक शक्तियों तथा उनके परिष्कार का द्योतक है। संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान तथा भावी जीवन का अपने में पूर्ण विकसित रूप है। विचार और कर्म के क्षेत्र में जो राष्ट्र का सृजन है, वही उसकी संस्कृति है। विद्वानों ने संस्कृति की अनेक परिभाषाएँ दी हैं, जो उसके स्वरूप को अभिव्यक्त करती हैं।

अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक और शिक्षा विशेषज्ञ डॉ. व्हाइटहेड के शब्दों में, संस्कृति की परिभाषा है, “मानसिक प्रयास, सौन्दर्य और मानवता की अनुभूति।” टायलर के अनुसार,”संस्कृति वह जटिल पूर्णता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कलाएँ, नैतिक आचरण, कानून, प्रथा तथा कोई भी अन्य क्षमताएँ व आदतें आती हैं, जिन्हें मनुष्य समाज का एक सदस्य होने के नाते अर्जित करता है।” बील्स तथा हॉइजर के अनुसार, “मानव समाज के सदस्य व्यवहार करने के जो निश्चित ढंग व तरीकों को अपनाते हैं, वे सम्पूर्ण रूप से संस्कृति का निर्माण करते हैं।” प्रसिद्ध समाजशास्त्री गिलिन के अनुसार, “प्रत्येक समूह तथा समाज में (आन्तरिक व बाह्य) व्यवहार के ऐसे प्रतिमान होते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते हैं तथा बच्चों को सिखलाये जाते हैं, जिनमें निरन्तर परिवर्तन की सम्भावना रहती है।” इसी प्रकार ग्रीन ने लिखा है कि, “संस्कृति ज्ञान, व्यवहार, विश्वास की उन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान व व्यवहार से उत्पन्न हुए साधनों की व्यवस्था को, जो कि समय के साथ परिवर्तित होती है, कहते हैं, जो सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती है।” संस्कृति की इन विभिन्न परिभाषाओं से स्पष्ट है कि विभिन्न विद्वानों ने संस्कृति की अलग-अलग परिभाषा दी है। इन परिभाषाओं में असमानता का मुख्य कारण यह है कि इतिहासकार, साहित्यकार, समाजशास्त्री आदि संस्कृति को भिन्न- भिन्न दृष्टि से देखते हैं। जैसे कि इतिहासकार संस्कृति को किसी समूह या देश के विशेष कलात्मक या बौद्धिक विकास के रूप में देखता है, जबकि साहित्यकार संस्कृति में जीवन की सरसता व कोमलता का परिचय प्राप्त करता है। अतः कतिपय विद्वानों ने संस्कृति को भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किया है।

प्रत्येक सभ्यता के क्रमिक विकास में एक स्तर आता है, जब वह विशेष मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक आदर्शों का निर्माण कर लेता है। ये उसके सामाजिक जीवन में इस तरह घुलमिल जाते हैं कि समस्त समाज इन उदात्त और सूक्ष्म विशेषताओं में रंग जाता है। यही उस समाज की संस्कृति है। दूसरे शब्दों में सभ्यता के सूक्ष्म, शुद्ध और उदात्त तत्त्वों के रचनात्मक विकास और पल्लवन का नाम ‘संस्कृति’ है। संस्कृति किसी एक व्यक्ति के प्रयत्न का परिणाम नहीं होती, बल्कि वह समाज के अनगिनत व्यक्तियों के सामूहिक प्रयत्न का परिणाम होती है और यह प्रयत्न भी ऐसा, जिसे एक के बाद एक आने वाली मनुष्य की विभिन्न सन्ततियाँ निरन्तर करती रहती हैं। यही कारण है कि संस्कृति का विकास धीरे-धीरे होता है। वह किसी एक युग की कृति नहीं होती बल्कि विभिन्न युगों के विविध मनुष्यों के सामूहिक व अनवरत श्रम का परिणाम होती है। वस्तुत: चिन्तन द्वारा अपने जीवन को सरस, सुन्दर और कल्याणमय बनाने के लिये मनुष्य जो प्रयत्न करता है, उसका परिणाम’ सस्कृति’ के रूप में प्राप्त होता है। व्यापक अर्थ में संस्कृति की परिभाषा इस प्रकार दी जाती है, “संस्कृति वह जीवन पद्धति है जिसकी स्थापना मानव व्यक्ति तथा समूह के रूप में करता है, वह उन आविष्कारों का संग्रह है जिनकी खोज मानव ने अपने जीवन को सफल बनाने के लिये की है। अपनी आत्मा और प्रकृति पर विजय प्राप्त करके ही व्यक्ति उन्नत हो सका है।” अतः संस्कृति मानव द्वारा प्रकृति पर प्राप्त विजय की क्रमबद्ध रोचक कहानी है। मनुष्य ने धर्म का जो विकास किया; दर्शनशास्त्र के रूप में जो चिन्तन किया; साहित्य, संगीत और कला का जो सृजन किया; सामूहिक जीवन को हितकर और सुखी बनाने के लिये जिन प्रथाओं व संस्थाओं को विकसित किया, उन सभी का समावेश हम ‘संस्कृति’ में कर सकते हैं।

संस्कृति का उद्भव

अनेक विद्वानों में इस बात को लेकर काफी मतभेद हैं कि भारतीय संस्कृति का उद्भव कैसे हुआ ? प्रसिद्ध पुरातत्त्वेत्ता व्हीलर की मान्यता है कि इसका उद्भव और विकास पश्चिमी एशिया की सुमेरियन संस्कृति के प्रभाव से हुआ। इसके विपरीत हेरास और चटर्जी की मान्यता है कि इसके निर्माण का श्रेय द्रविडों को है, जबकि फेयरसर्विस का विश्वास है कि यह हिन्दी- ईरानी क्षेत्र की अपनी उपज है। लेकिन इन विद्वानों की मान्यताओं को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि भारतीय संस्कृति की कुछ ऐसी बातें हैं जो विश्व में और कहीं नहीं मिलतीं। इसमें पीपल के वृक्ष की पूजा, बैल का महत्त्व, स्नान और ध्यान, खास किस्म की लिपि और कला- शैली आदि के धार्मिक आचार-विचार अब तक और कहीं दिखाई नहीं दिये हैं। सिन्धु संस्कृति में मिला सामान एक खास किस्म के रहन-सहन को प्रकट करता है, जिसकी मिसाल और कहीं नहीं है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सिन्धु-संस्कृति भारत की अपनी स्वयं की चीज है और यह सैकड़ों और हजारों साल पहिले से चले आ रहे रहन-सहन के विकास का परिणाम है। ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय संस्कृति को किसी और संस्कृति से जोड़ने का कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है। समय के साथ-साथ यहाँ का ग्रामीण जीवन शहरी रहन-सहन में बदल गया, सामाजिक व्यवस्था में विकास हुआ, लोगों के विचार में गहराई और पैनापन आया तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति और सम्पन्नता दिखाई देने लगी।

संस्कृति का स्वरूप

मानव एक ओर बाह्य विश्व का संस्कार करके अथवा प्रकृति पर विजय प्राप्त करके उसमें परिवर्तन करने के लिये प्रयत्नशील रहा है और दूसरी ओर वह अपनी आत्मा का संस्कार करके उसमें परिवर्तन उत्पन्न करने में संलग्न रहा है। मानव ने बेडौल पाषाण या संगमरमर को तराश कर सुन्दर मूर्तियों या अन्य वस्तुओं का निर्माण किया है। यह क्रिया बाह्य विश्व का संस्कार है, जिसे संस्कृति का भौतिक स्वरूप कहा जाता है। किन्तु मानव निर्मित पाषाण या संगमरमर की मूर्ति या अन्य वस्तुओं में जो सौन्दर्य और कला की श्रेष्ठ भावनाएँ तथा हस्तकौशल अभिव्यक्त होता है, वह संस्कृति का आध्यात्मिक अंग है। मनुष्य के जिन क्रियाकलापों में बाह्य विश्व के संस्कार एवं परिवर्तन की प्रधानता होती है उसे भौतिक संस्कृति भी कहा जा सकता है। कृषि, पशुपालन, भवन-निर्माण, यन्त्र-निर्माण, विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन आदि भौतिक संस्कृति है। इसमें बाह्य विश्व की भौतिक प्रगति की प्रधानता है। आध्यात्मिक संस्कृति में मानव की प्रकृति और आत्मा का संस्कार एवं सुधार की प्रधानता होती है। संस्कृति के इस आध्यात्मिक अंश में धर्म, नीति, विधि-विधान, विद्याएँ, कला- कौशल, साहित्य, मानव के समस्त सद्गुण और शिष्टाचार निहित हैं। संस्कृति के भौतिक तथा आध्यात्मिक अंग एक ही अखण्ड वस्तु के स्वरूप हैं। भौतिक व्यवहार, संस्कृति की नींव है तथा मानसिक और आध्यात्मिक व्यवहार उस नींव पर खड़ा हुआ भव्य भवन है। संस्कृति के भौतिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं।

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