संस्कृति का उद्भव, निर्माण और स्वरूप की विवेचना कीजिए ।

भारतीय संस्कृति मानव समाज की एक अमूल्य निधि है। अपनी अनेक अप्रतिम विशेषताओं के कारण ही भारतीय संस्कृति को अमर कहा जाता है। भारतीय संस्कृति की पावन धारा का प्रवाह उस धूमिल अतीत से प्रारम्भ होता है, जिसकी सीमाओं के चिन्तन में हमारे अनुमान के पैर लड़खड़ाते है। पिछले पाँच-छ: हजार वर्षों के विस्तृत काल क्षेत्र में, इस पुनीत सरस्वती की संजीवनी धारा कहीं-कहीं इतिहास के अज्ञात प्रखण्डों में खोई हुई-सी प्रतीत होती है। लेकिन अधिक अन्वेषित क्षेत्रों के सुरम्य स्थलों में, पतित पावनी जाह्नवी के समान, उसका प्रवाह विस्तृत, अबाध एवं सुप्रकाशित दिखाई देता है। यदि कहीं-कहीं, वह अनेक ताल-तलैयों में विभाजित हो गई है, तो अन्य स्थानों में उसका विशुद्ध, प्रशान्त और विशाल प्रवाह दर्शक को पुन: चौधिया देता है। परन्तु इस परिव्रज्या की इस दीर्घयात्रा में ऐसा कोई भी स्थल नहीं है, जहाँ पर उसकी हृदयग्राहिकता और पावनता का आभास न मिलता हो।

किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह व्यक्तिनिष्ठ न होकर अनेक व्यक्तियों द्वारा किया गया एक बौद्धिक प्रयास है। अर्थात् यह किसी एक व्यक्ति के पुरुषार्थ का फल न होकर असंख्य ज्ञात तथा अज्ञात व्यक्तियों के भागीरथ प्रयत्न का परिणाम होती है। सभी व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और योग्यतानुसार संस्कृति के निर्माण में सहयोग देते हैं। संस्कृति के निर्माण की तुलना आस्ट्रेलिया के निकट समुद्र में पाई जाने वाली मूंगे की भीमकाय चट्टानों से की जा सकती है। मूंगे के असंख्य कीड़े अपने छोटे-छोटे घर बनाते-बनाते समाप्त हो जाते हैं। हजारों वर्ष तक मूंगे के कीड़ों की पीढ़ियाँ निरन्तर यह क्रम जारी रखती है और वे सब मूंगे के नन्हें-नन्हें घर परस्पर जुड़ते हुए विशाल चट्टानों का रूप धारण कर लेते हैं। इसी प्रकार संस्कृति का भी धीरे-धीरे लम्बी अवधि में निर्माण होता है। मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए, विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थानों, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि, भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं। भारतीय संस्कृति का निर्माण भी इसी प्रकार हुआ है। संस्कृति समाज का व्यक्तित्व या आईना है, जिसके विचार, भावना, आचरण तथा कार्यकलापों के विभिन्न प्रस्तरों से संस्कृति की सिद्धि होती है। सिन्धु संस्कृति से उत्तर वैदिक काल तथा भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों का निर्माण हो चुका था और गुप्तकाल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया है। पूर्व-वैदिक और उत्तर-वैदिक आर्यों ने इस संस्कृति के निर्माण का भागीरथ प्रयत्न किया और बाद में गुप्त सम्राटों ने इस पूर्णत: पल्लवित करने में अपना महान् योगदान दिया।

इनके प्रयासों से भारतीय संस्कृति का निर्माण इतना सुदृढ़ आधार पर हुआ कि विदेशी आक्रमणकारियों की संस्कृति भी भारतीय संस्कृति की नीवें न हिला सकी। इसके विपरीत वे विदेशी संस्कृतियाँ स्वयं भारतीय संस्कृति में घुल-मिल गई और भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भारत की इस समृद्ध संस्कृति ने, उसकी भौगोलिक परिस्थिति और उसके ऐतिहासिक अनुभवों ने, उसके धार्मिक विचारों और उसके आदर्शों ने उसे एकता और अखण्डता प्रदान की। सर्वगुण सम्पन्न भारतीय संस्कृति के इस ढाँचे ने काल के घातक प्रहारों एवं आक्रमणों से भारतीय संस्कृति की रक्षा की है।

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