संस्कृति और सभ्यता में अन्तर स्पष्ट कीजिए ।
भारतीय संस्कृति मानव समाज की एक अमूल्य निधि है। भारतीय संस्कृति की पावन धारा का प्रवाह उस धूमिल अतीत से प्रारम्भ होता है, जिसकी सीमाओं के चिन्तन में हमारे अनुमान के पैर लड़खड़ाते है। यदि विश्व की कोई संस्कृति अमर कही जा सकती है तो निस्सन्देह भारतीय संस्कृति ही वह संस्कृति है। चीनी संस्कृति के अतिरिक्त विश्व की अन्य सभी मेसोपोटामिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन और रवाल्दी प्रभूति, मिस्र, ईरान, यूनान और रोम की प्राचीन संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी है, केवल कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव गाथा गाने के लिए बचे है। भारतीय राष्ट्रवाद का जो स्वरूप आज विद्यमान है, हमारी संस्कृति के दिव्य आलोक में ही उद्भासित हो रहा है। आज उसी के दिव्य आलोक से भारतीय राष्ट्रीयता अपनी समस्त आभा और प्रतिभा प्राप्त कर उद्भासित हो रही है। इतना ही नहीं, भारतीय संस्कृति का शान्ति, अहिंसा और विश्व-बन्धुत्व का सन्देश परमाणु युद्ध की विभीषिका से त्रस्त मानवता के लिए आज भी आशा संजोये हुए है। विश्व के रंगमंच पर संयुक्त राष्ट्रसंघ भी विश्व की मानवता को यही सन्देश प्रसारित कर रहा है, जिससे विश्व के अनेक देशों की विदेश नीति इन्हीं सन्देशों से प्रभावित हो रही है।
सभ्यता और संस्कृति में भेद
प्रकृति द्वारा प्रदत्त पदार्थों, तत्त्वों और शक्तियों का उपयोग कर मनुष्य ने भौतिक क्षेत्र में जो उन्नति की है, उसी को हम सभ्यता कहते हैं। सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की और संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। जीव-मात्र के तीन मुख्य ऐहिक ध्येय हैं-अशन, वसन और निवसन। जब से मनुष्य से मानवी बाना पहना है, तभी से वह इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटाने में लगा हुआ है। इस हेतु वह विविध सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और आर्थिक यन्त्रों और साधनों का अन्वेषण करता रहा है। इनका क्रम सुदूर अतीत से, जब उसने पत्थर से हथियार और औजार बनाना जाना, आज तक आधुनिक हवाई जहाज, रेल, तार, लोहे और कपड़े के विशाल कारखाने आदि के रूप में अनवरत रूप से चला आ रहा है। उसकी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं का भी मुख्यतया यही उद्देश्य रहा है कि मनुष्य-जीवन की इन तीनों आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता, सुगमता और विश्वसनीय रूप से हो सके। इन समस्त रचनाओं, संस्थाओं और साधनों की सम्बद्ध और संस्था-रूप व्यवस्था का ही नाम ‘सभ्यता’ है।
मनुष्य स्वभाव से प्रगतिशील प्राणी है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-नीति, रहन- सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसन्धान और आविष्कार जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के स्तर से ऊपर उठता है, सभ्यता का अंग है। सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की और संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। प्रारम्भ में मनुष्य आँधी-पानी, सर्दी-गर्मी सब कुछ सहन करता हुआ जंगल में रहता था। धीरे-धीरे उसने प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा करने के लिये पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों का निर्माण किया, अब वह लोहे और सीमेन्ट की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने में लगा है। प्राचीनकाल में यातायात का साधन केवल दो पैर थे, फिर उसने घोड़े, ऊँट, हाथी, रथ आदि का सहारा लिया, अब वह मोटर और रेलगाड़ी के द्वारा थोड़े समय में अधिक दूरी तय करने लगा है, हवाई जहाज लेकर आकाश में उड़ने लगा है, अन्तरिक्ष-यानों के द्वारा चन्द्रमा पर पहुँच गया तथा मंगल व शुक्र ग्रह पर पहुँचने के प्रयत्न में लगा हुआ है। पहले मनुष्य जंगल के कन्द, मूल और फल तथा आखेट से अपना जीवन निर्वाह करता था। बाद में उसने पशुपालन और कृषि के आविष्कार द्वारा अपने आजीविका के साधनों में उन्नति की। पहले वह अपने सभी कार्यों को शारीरिक शक्ति से करता था, फिर उसने पशुओं को पालतू बनाकर उनकी शक्ति का हल व गाड़ी आदि में प्रयोग करना सीखा; आज उसने हवा, पानी, वाष्प, बिजली आदि भौतिक शक्तियों को तथा आणविक शक्ति को वश में करके ऐसी मशीनें बनाई हैं जिससे उसके भौतिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ चुका है। मनुष्य की यह सारी प्रगति ‘सभ्यता’ कहलाती है।
मनुष्य केवल भौतिक सुख-सुविधाओं से ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता, क्योंकि भौतिक प्रगति से शरीर की भूख मिट सकती है, लेकिन मन और आत्मा अतृप्त रहते हैं। इन्हें तृप्त करने के लिये मनुष्य जो अपना विकास करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिये सामाजिक और राजनीतिक संगठनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक ‘सम्यक-कृति’ संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।
इस प्रकार ‘सभ्यता’ मानव की भौतिक विचारधारा को सूचित करती है, जबकि संस्कृति, आध्यात्मिक एवं मानसिक क्षेत्र के विकास को सूचित करती है।
- मैथ्यू आर्नल्ड ने सभ्यता के सम्बन्ध में लिखा है कि, “मनुष्य का समाज में मानवीकरण ही सभ्यता है।”
- इसी प्रकार डॉ. जॉनसन ने लिखा है कि, “सभ्यता बर्बरता के विरुद्ध जीवित रहने की दशा है।”
- डॉ. बैजनाथपुरी ने सभ्यता तथा संस्कृति के अन्तर को इस प्रकार व्यक्त किया है, “संस्कृति अभ्यांतर है, सभ्यता केवल बाह्य है। संस्कृति के अपनाने में देर लगती है, पर सभ्यता का अनुकरण सरलता से किया जा सकता है। संस्कृति का सम्बन्ध धार्मिक विश्वास से भी है। सभ्यता सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों से बँधी हुई है।”
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सभ्यता मनुष्य को प्रगतिवाद की ओर ले जाने का संकेत करती है लेकिन मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य ने धर्म का जो विकास किया, दर्शनशास्त्र के रूप में जो चिन्तन किया, साहित्य, संगीत तथा कला की जो सृष्टि की, सामूहिक जीवन को हितकर तथा सुखी बनाने के लिये जिन पदार्थों एवं संस्थाओं का विकास किया, उन सभी का समावेश ‘संस्कृति’ में होता है।