‘भारतीय संस्कृति में विविधता में एकता पाई जाती है।” विवेचना कीजिए।
भारतीय संस्कृति में विविधता में एकता
भारत की सांस्कृतिक एकता के विषय में अधिकांश विदेशी विद्वानों और पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित कुछ भारतीय विचारकों की यह धारणा रही है कि भारतवर्ष एक’ भौगोलिक अभिव्यक्ति मात्र’ है। यहाँ सदैव राजनीतिक और सांस्कृतिक एकता का अभाव रहा है। यदि हम एक पंजाबी की किसी मद्रासी से तुलना करें तो देखेंगे कि खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा और भाषा, किसी भी क्षेत्र में उनमें साम्य नहीं है। यहाँ प्रत्येक प्रदेश में प्राकृतिक विशेषताओं और सामाजिक परिस्थितियों में अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है। राजनीतिक दृष्टि से इस देश को एक केन्द्र से शासित करना सदैव कठिन रहा है। अतः मुहम्मद अली जिन्ना सहित कुछ व्यक्तियों ने इस सिद्धान्त को मान्यता दी कि भारत में सांस्कृतिक एकता न कभी थी और न आज है। इसलिये हमारे लिये यह विचार कर लेना आवश्यक हो जाता है कि भारत एक देश और एक राष्ट्र है अथवा नहीं अर्थात् भारत में सांस्कृतिक एकता विद्यमान है अथवा नहीं।
भारत एक विशाल देश है और यह आश्चर्यजनक विभिन्नताओं से परिपूर्ण है। एक ओर हिमालय पर्वत पर अनन्त हिमराशि के फलस्वरूप भयंकर शीत है तथा दूसरी ओर कोंकण व कोरोमण्डल क्षेत्र में असह्य गर्मी पड़ती है। चेरापूंजी (असम) में यदि प्रतिवर्ष 400 इंच वर्षा होती है तो कुछ रेगिस्तानी क्षेत्रों में पाँच इंच या इससे भी कम। जलवायु की विभिन्नता के कारण वनस्पति एवं पशु-पक्षियों में भी असीमित विभिन्नता देखी जा सकती है। इस देश में विभिन्न जातियाँ निवास करती हैं यथा-ब्राह्मण, राजपूत, महाजन, मुस्लिम, मंगोल, कोल-भील, संथाल आदि। विभिन्न जातियों के साथ-साथ यहाँ हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम, ईसाई, पारसी आदि धर्मावलम्बी भी विद्यमान हैं। देश में विभिन्न भाषा और बोलियाँ बोलने वाले लोग हैं। सामाजिक रूढ़ियों, रीति- रिवाजों और विधि-विधानों में भी अन्तर है तथा प्रदेशों में परस्पर सांस्कृतिक विभिन्नता है। इसीलिये विदेशियों ने भारत को जातियों, भाषाओं, मतमतान्तरों, संस्कृतियों और रीति-रिवाजों का अजायबघर और संग्रहालय कहकर पुकारा है। ऊपरी दृष्टि से तो यह कथन सत्य ही प्रतीत होता है। परन्तु इन विभिन्नताओं के पीछे जो आधारभूत एकता है, वह कुछ अधिक गम्भीर चिन्तन करने पर ही दिखाई देती है, जिसके आधार पर निम्नलिखित हैं-
(i) भौगोलिक एकता
यद्यपि भारत में अनेक प्रकार के भूखण्ड, जलवायु, जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ हैं, तथापि प्रकृति ने इसे एकीकृत देश बनाया है। इसके उत्तर में दुर्गम हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र की जल सीमा ने इसे घेर रखा है। प्रकृति ने इसे एक भौगोलिक इकाई बनाया है, जो देश के आन्तरिक विभाजन को ढक देती है। अतः जो भौगोलिक अनेकरूपता हमें दिखाई देती है, उसमें एक ऐसी मौलिक एकता है जिसने हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक भारतीय जीवन को एकसूत्र में बाँध रखा है। स्मिथ जैसे आलोचक इतिहासकार ने भी यह माना है कि, भारत निःसन्देह एक स्वतन्त्र भौगोलिक इकाई है, जिसका एक नाम होना सर्वथा ठीक ही है। “सभी भूगोल विशारद यह मानते हैं कि अनेकानेक भौगोलिक विषमताओं के होते हुए भी अनेक लक्षण भारत को अन्य समीपवर्ती देशों से स्पष्टतया विभक्त कर देते हैं। भारतीयों को प्राचीनकाल से ही इस भौगोलिक एकता का ज्ञान है। जिस समय से आर्य सभ्यता सारे देश में फैल गई, तब से इस भौगोलिक एकता के ज्ञान के चिन्ह हमारे धार्मिक और लौकिक साहित्य में मिलते हैं। कात्यायन से आरम्भ होकर कोई ऐसा प्रसिद्ध कवि, आचार्य, नीतिकार और राजनीतिज्ञ नहीं हुआ जो भारत के किसी भाग को विदेश समझता हो या उसे भारत के राजनीतिक क्षेत्र का भाग न समझता हो। हमारे प्राचीन महाकाव्यों में सम्पूर्ण देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ ही किया गया है। विष्णुपुराण में तो स्पष्ट रूप से बताया गया है कि समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का सारा प्रदेश’ भारत’ है और उसके निवासी भारत की सन्तान हैं। अतः तीसरी-चौथी शताब्दी से तो निःसन्देह भारत के मनीषी देश की भौगोलिक एकता से पूर्ण रूप से अवगत थे। इसके प्रमाण-स्वरूप, सभी देशी और विदेशी लोग इसे एक ही नाम देते रहे हैं।
(ii) राजनीतिक एकता
कुछ विद्वानों का कथन है कि यह देश केवल अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत ही एकसूत्र में बँध सका, इससे पूर्व नहीं। यह कथन ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं है। यद्यपि प्राचीनकाल में देश की विशालता और यातायात के सुगम साधनों के अभाव में पूर्ण राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकी, परन्तु प्राचीन भारतवासी देश में राजनीतिक एकता और केन्द्रीयकरण के आदर्श एवं संस्थाओं से भलीभाँति परिचित थे। राजाओं की मनोकामना दिग्विजय करके चक्रवर्ती सम्राट बनने की होती थी। महत्त्वाकांक्षी नरेश अपने साम्राज्य का विस्तार करके अपनी सार्वभौमिक प्रतिष्ठा के लिये राजसूय, अश्वमेघ, वाजपेय आदि यज्ञ भी करते थे। मगध के अजातशत्रु, मौर्य, आन्ध्र और गुप्त सम्राटों ने राजनीतिक एकता की परम्पराएँ बनाये रखीं। मध्य युग में अलाउद्दीन खिलजी, अकबर और औरंगजेब तथा मराठों के पेशवाओं ने भी भारत को राजनीतिक दृष्टि से एक किया। उन्होंने सारे साम्राज्य का शासन संचालन केन्द्र से किया। मुगलों के समय में एक-सी शासन-व्यवस्था, एक-से कानून और एक राजभाषा थी। आधुनिक युग में ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत यह राजनीतिक एकता अधिक दृढ़ हो गयी। इसी एकता और राष्ट्रीय भावना के आधार पर विभिन्न प्रान्तों के निवासियों ने संगठित होकर देश के राष्ट्रीय आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया । स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तो, एक-सी शासन-व्यवस्था, कानून और संविधान के द्वारा यह राजनीतिक एकता और भी अधिक सुदृढ़ कर दी गई है।
(iii) सांस्कृतिक एकता
विभिन्न धर्मावलम्बियों व जातियों के होने पर भी भारत की सांस्कृतिक एकता प्राचीनकाल से रही है। भारतीय संस्कृति विविध सम्प्रदायों तथा जातियों के आचार-विचार, विश्वास और आध्यात्मिक साधना का समन्वय है। यह संस्कृति वैदिक, बौद्ध, जैन, हिन्दू, मुस्लिम और आधुनिक संस्कृतियों के सम्मिश्रण से बनी है। भारत तथा पाकिस्तान व बांगलादेश का मुसलमान अपने विचारों और रीति-रिवाजों की दृष्टि से तुर्की तथा अरब देशों के मुसलमानों से भिन्न है और अपेक्षाकृत भारतीय हिन्दुओं के निकट है। भारत के अनेक धार्मिक सम्प्रदायों के दार्शनिक और नैतिक सिद्धान्तों में मलूभूत एकता है। एकेश्वरवाद, आत्मा का अमरत्व, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष, निर्वाण, भक्ति, योग, बोधिसत्व और तीर्थङ्कर आदि प्रायः सभी धर्मों की निधि है। धार्मिक कर्मकाण्ड और संस्कारों में भी कुछ समानता है। यम, नियम, शील, तप और सदाचार पर सभी सम्प्रदाय जोर देते हैं। ऋषि-मुनियों, सन्त-महात्माओं और महापुरुषों का सम्मान बिना किसी क्षेत्रीय भेदभाव के सर्वत्र होता है। सभी सम्प्रदायों के तीर्थस्थान, पवित्र नदियाँ और पर्वत सम्पूर्ण भारत में फैले हुए हैं। यही सांस्कृतिक एकता एवं अखण्डता का सबल प्रमाण है।
भारतीय साहित्य एवं कला का उद्गम सभी प्रान्तों में एक ही रहा है, यथा-धार्मिक भावना, नैतिक भावना, रहस्यानुभूति तथा प्रतीकात्मकता आदि। साहित्य एवं कला के आधार-कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, अलंकार, रस आदि सभी जगह समान हैं। वेद, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति, बौद्ध एवं जैन साहित्य समस्त भारत में समान रूप से प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। कला के स्मारकों में प्रान्तीय विशेषता होते हुए भी स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत और रंगमंच आदि में भारतीयता की ही झलक दिखाई देती है। अजन्ता, एलोरा, विदिशा उदयगिरी, बाघ आदि के चैत्य एवं विहार तथा सारनाथ, साँची, भरहुत, अमरावती, मथुरा, गया आदि स्थानों के विहार तथा स्तूप यह प्रमाणित करते हैं कि किस प्रकार एक ही धार्मिक भावना ने देश को एकसूत्र में बाँध दिया था।
भारत के लगभग सभी सम्प्रदायों ने प्राचीनकाल से संस्कृत भाषा को अपनाया था। भारत में सांस्कृतिक विचारों का आदान-प्रदान संस्कृत भाषा के माध्यम से ही हुआ। यद्यपि प्रारम्भिक जैन व बौद्ध मतावलम्बियों ने प्राकृत और पालि भाषा को अपने उपदेशों का मुख्य माध्यम बनाया था, लेकिन संस्कार एवं प्रसार की दृष्टि से उन्हें भी बाद में संस्कृत भाषा को अपनाना पड़ा। राजनैतिक अध्ययन एवं शासन-तंत्र में भी संस्कृत भाषा का प्रयोग होता था । अतः यह अन्तर- प्रान्तीय उपयोग की भाषा थी। मध्य युग तक इसका खूब प्रचार रहा तथा अनेक मूल ग्रन्थ संस्कृत में ही लिखे गये। देश की विविध भाषाओं हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला, पंजाबी आदि का मूल स्रोत संस्कृत रहा है। इनकी शब्दावली मुख्यतया संस्कृत से ली गई है। दक्षिण की तमिल, तेलगू, मलयालम और कन्नड़ भाषाओं पर भी संस्कृत का अधिक प्रभाव है। इन सभी भाषाओं के साहित्य में भी समानता है, क्योंकि उनके प्रेरणा के मूल स्रोत रामायण, महाभारत एवं पुराणों की कथाएँ, उनके नायकों के जीवन-चरित्र, देवी-देवताओं के वृत्तान्त ही रहे हैं। इस प्रकार संस्कृत ने प्रान्त, जाति, सम्प्रदाय और बोली आदि का अतिक्रमण कर भारतीयों को एक सांस्कृतिक सूत्र में बाँधने में महान् योगदान दिया । प्रत्येक भाषा के साहित्य पर आध्यात्मवाद की छाप है और विषय-निरूपण एक समान है।
यद्यपि भारत में अनेक जातियाँ – आर्य, द्रविड़, सीरियन, हूण, तुर्क, पठान, मंगोल आदि का प्रवेश हुआ, किन्तु उनमें से अधिकांश हिन्दू समाज में इतनी घुलमिल गई हैं कि उनका अपना अस्तित्व ही नहीं रहा। जो एक-दो अहिन्दू जातियाँ हैं उनमें अधिकांश लोग हिन्दुओं की ही सन्तान हैं तथा वे हिन्दू वातावरण से पूर्णतः अप्रभावित नहीं हैं। विभिन्न क्षेत्रों में विवाह, खान-पान, शिष्टाचार, मनोरंजन, आमोद-प्रमोद, पर्व, उत्सव, मेले आदि में भी देश में काफी कुछ समानता दिखाई देती है। आधुनिक राष्ट्रीयता की नवीन विचारधारा के फलस्वरूप देश की एक ही शासन- व्यवस्था के अन्तर्गत सभी नागरिकों को नागरिकता के अधिकार प्राप्त हैं। इससे अब जातीय भेद समाप्त हो रहा है।
अतः भारतीय जीवन की ऊपर से दिखाई देने वाली विविधता भारतीय संस्कृति की मौलिक एकता है तथा संस्कृति की समृद्धि की सूचक है। विस्तार में महान् तथा रीति-रिवाजों में विभिन्नता होते हुए भी भारत में एक मौलिक एकता रही है। भारत के भिन्न-भिन्न भागों के निवासियों ने एक मौलिक श्रृंखला के चारों ओर भाषा, साहित्य, कला-कौशल, आध्यात्मिक चिन्तन, सामाजिक व्यवस्था के नाना प्रकार के फल सँवारे हैं। आज भी गायन और नृत्य की अनेक शैलियों भारत में उन्नत दशा में हैं। भारतीय संस्कृति की यह बहुरूपता उसकी सांस्कृतिक सम्पन्नता और सर्वांगीणता की सूचक है। प्राचीन भारत का इतिहास लिखते हुए, जहाँ हम उस धर्म, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य और सामाजिक संगठन के विकास का विवेचन करते हैं, जो सारे भारत में समान रूप से विकसित हुए, वहाँ साथ ही हम उस प्रयत्न का भी प्रदर्शन करते है, जो इस देश में राजनीतिक एकता की स्थापना के लिये निरन्तर जारी रहा। यही कारण है कि हम भारत का एकीकृत इतिहास लिखने में समर्थ होते हैं।
भारत के निवासियों ने अपने सुदीर्घकालीन इतिहास में अपने जीवन को जिस प्रकार विकसित किया, धर्म, दर्शन, राजनीति, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, संगीत, कला आदि में जिस प्रकार उन्नति की, उसका इतिहास ही भारतीय संस्कृति का इतिहास है।