भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषताओं का विवेचन कीजिए। part 2
भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ part 1
( 4 ) संस्कृति की आनुकूल्यता
भारतीय संस्कृति में आनुकूल्यता प्राचीन युग से लेकर आज के युग तक पाई जाती है। आनुकूल्य का अभिप्राय है-अपने को परिस्थितियों के अनुकूल बनाते रहना। जीव-शास्त्र का यह नियम है कि वही प्राणी दीर्घजीवी होता है जो परिस्थितियों के अनुकूल अपने को ढालता रहे। पृथ्वी पर पहले हाथियों से भी कई गुना बड़े भीमकाय जानवर रहते थे, वे जीवन-संघर्ष की प्रतियोगिता में समाप्त हो गये, क्योंकि नई परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर वे अपने को उनके अनुकूल नहीं ढाल सके। संस्कृतियों पर भी यह नियम लागू होता है। चूँकि मिस्र, मेक्सिको और ईरान की संस्कृतियाँ विदेशी आक्रमणों में अपने को नहीं संभाल सकीं, इसलिये उनका अन्त हो गया। किन्तु भारतीय संस्कृति अपने इस गुण के कारण सभी विषम परिस्थितियों में उपयुक्त परिवर्तन करती हुई जीवित रही।
भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से लचीली रही है जिसके कारण इनमें प्रत्येक परिस्थिति के अनुकूल ढ़ाल जाने और बाह्य प्रभावों से आवश्यक तत्त्व ग्रहण करने की क्षमता आ गई। परिस्थितियाँ निरन्तर परिवर्तित होती रहीं और हमारे धर्म, समाज, आचार-विचार आदि में निरन्तर परिवर्तन आता चला गया, किन्तु यह परिवर्तन इतना शनैः शनै: और सूक्ष्मता से हुआ कि हमें उसका बिल्कुल पता ही नहीं चला। वैदिक युग से वर्तमान युग तक हम काफी बदल चुके हैं, जैसे उस समय हमारा धर्म यज्ञ-प्रधान था, जबकि आज भक्ति- प्रधान है। विभिन्न आक्रान्ताओं के भारत में प्रवेश करने से नवीन और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं, उसमें भी इसी अनुकूलता की प्रवृत्ति ने भारतीय संस्कृति को बचाये रखा। कोई भी आक्रान्ता प्रजाति भारत पर राजनीतिक रूप से आधिपत्य करने के बावजूद सांस्कृतिक विजय नहीं कर सकी। जो भी आक्रान्ता जातिया यहाँ आ गई और यहीं की होकर रह गई। जीवन के बाह्य अंगों पर उनका प्रभाव अवश्य पड़ा, परन्तु भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों को वह प्रभावित नहीं कर सकी, उलटे उसी के रंग में रंग गई। ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि गुप्त काल से लेकर आज तक भारत के मौलिक आदर्शों में कोई अन्तर नहीं आया है। मुसलमानों और अंग्रेजों के शासनकाल में शिक्षित वर्ग द्वारा विजेताओं का रहन-सहन, भाषा और वेशभूषा अपना लेने पर भी भारत ने अपना परम्परागत धर्म और सामाजिक आदर्शों का परित्याग नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में सैकड़ों बोलियों, भाषाओं और जातियों के होने पर भी सांस्कृतिक एकता को कोई आघात नहीं पहुँचा, क्योंकि भारतीयों में परिस्थितियों के अनुकूल अपने को ढालने की अपूर्व क्षमता थी।
(5) संस्कृति की सर्वांगीणता
भारतीयों ने सदैव जीवन को सर्वतोन्मुखी विकास पर बल दिया है। अतः व्यक्ति का सर्वांगीण विकास भारतीय संस्कृति का आधारभूत विचार है। भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक होते हुए भी इस लोक के सुख की उपेक्षा नहीं करती। सर्वांगीण विकास का लक्ष्य ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की उन्नति करना है। प्राचीन भारतीयों द्वारा की गई भौतिक प्रगति इसका प्रमाण है। भारतीय संस्कृति में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों के विकास पर समान बल दिया गया है। पाश्चात्य जगत् में विज्ञान के भिन्न-भिन्न आविष्कार करके भूतल की प्रत्येक वस्तु को समझने का प्रयत्न किया है, किन्तु उसने यदि किसी विज्ञान का विकास नहीं किया है तो वह है आत्म-विज्ञान।
भारत में प्राचीनकाल से शरीर, मन और आत्मा के सामंजस्यपूर्ण विकास को जीवन का लक्ष्य माना गया था। शास्त्रकारों के अनुसार मनुष्य को चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। इनमें पहला और अन्तिम आत्मिक विकास के लिये था और दूसरा तथा तीसरा शरीर व मन की उन्नति के लिये। इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिये आश्रम व्यवस्था की स्थापना की गई। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम पहले तीन पुरुषार्थों को प्राप्त करने के लिये थे तथा वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम में मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता था। इसलिए कहा जा सकता है कि मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति भारतीय संस्कृति का लक्ष्य रही है। इसलिए हम प्राचीन भारतीयों को एक ओर वेदान्त जैसे गूढ़ दर्शन और योग जैसी गूढ़ क्रिया का विकास करते देखते हैं तो दूसरी और साम्राज्यों का निर्माण, विदेशों में भारतीय धर्मों का प्रचार और अर्थोपार्जन के लिए विदेश गमन तथा कला, साहित्य और विज्ञान में अभूतपूर्व उन्नति करता पाते हैं।
इस प्रकार भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक और भौतिक दोनों तत्त्वों पर समान रूप से बल दिया गया है। शास्त्रकारों के अनुसार चारों पुरुषार्थों का प्रयत्न समान रूप से करना चाहिये, ताकि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो सके। व्यक्ति को न तो धर्म की उपेक्षा करनी चाहिये और न अर्थ और काम की ओर अधिक ध्यान देना चाहिये। धर्म का अनुसरण कर अर्थ की उपलब्धि करने, धर्मानुसार ‘काम’ का सेवन करने और मोक्ष को अन्तिम लक्ष्य बनाकर ही मनुष्य अपना सर्वांगीण विकास कर सकता है।
महाभारत के शान्ति पर्व में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को लेकर एक अध्याय में विस्तृत चर्चा की गई है। युधिष्ठर प्रश्न करते हैं-“प्रायः लोगों की धर्म, अर्थ तथा न्याय की ओर प्रवृत्ति होती है, इनमें कौन सर्वश्रेष्ठ, कौन मध्यम तथा कौन लघु है? विदुर धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं, अर्जुन अर्थ को, भीम काम को और स्वयं युधिष्ठर मोक्ष को। युधिष्ठर की दृष्टि से जो व्यक्ति न अर्थ में लगा है, न धर्म में और न काम में, जो मिट्टी और सोने में भेद नहीं करता वह सुख- दुःख से मुक्त हो जाता है। आसक्ति भाव के रहते हुए मुक्ति नहीं होती। जो मोक्ष चाहता है उसे अनासक्ति भाव से कर्म करते रहना चाहिए, जिसके लिए विधाता ने उसे नियुक्त किया है। यहीं भारतीय संस्कृति में लौकिक तथा पारलौकिक का अद्भुत समन्वय है।
(6) संस्कृति की ग्रहणशीलता
सहिष्णुता संस्कृति की एक अन्य विशेषता जो मुख्यतः धार्मिकता और सहिष्णुता का परिणाम है, वह है ग्रहणशीलता अथवा समन्वयशीलता । ग्रहणशीलता से अभिप्राय: यह है कि भारत में जो नये तत्त्व आते गये, भारतीय उन्हें पचाकर अपना अंग बनाते रहे । ऊपरी दृष्टि से भारतीय संस्कृति अत्यधिक निषेधात्मक और पृथकत्वप्रिय संस्कृति दिखाई पड़ती है। परन्तु अनेकानेक प्रजातीय प्रलय समान आक्रमणों को झेलते हुए, यदि इसमें ग्रहणशीलता नहीं होती तो कदाचित् वह बहुत पहले अन्य संस्कृतियों की तरह विलुप्त हो गई होती। सुसंस्कृत ईरान, यूनान, अरब और आधुनिक युग में, पश्चिमी यूरोप के निवासी भारत में आये और न्यूनाधिक समय तक शासन करते रहे। उनमें से कुछ स्थायी रूप से भारत में ही बस गये। अर्धसभ्य शक, हूण, मंगोल और तुर्क भी यहाँ बहुत समय तक लूट-खसोट और मार-काट करते रहे और अधिकांश भारतीयों में घुलमिल गये। इनमें से अधिकांश का अब भारतीय जनसंख्या में पृथक् अस्तित्व ही समाप्त हो गया। उन्होंने हमारी भाषा, धर्म, नीति-विधान अपना लिया।
आधुनिक पारसी गुजराती बोलते हैं, उनके शादी-ब्याह की रीति-नीति और नीति-विधान भारतीय है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति ने विदेशी तत्त्वों को पूरी तरह आत्मसात् कर लिया। इसीलिए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भारतीय संस्कृति को संस्कृतियों का सागर कहा था । जिस प्रकार महासागर में अनेकानेक संस्कृतियाँ मिल-जुलकर एक हो गई थी। भारतीय संस्कृति ने दूसरी संस्कृतियों के सुन्दर तत्त्व ग्रहण करने में कभी संकोच नहीं किया। भारतीय ज्योतिष और कला, यूनानी और इस्लाम प्रभाव से ही समृद्ध हुई है।
भारतीय संस्कृति की ग्रहणशीलता तथा समन्वयशीलता के कारण ही हमारे यहाँ सभी प्रकार के धार्मिक विश्वास और रहन-सहन के ढंग मिलते हैं। मानव जाति को विभिन्न हिस्सों में बाँटने वाले सब पन्थ यहाँ पाये जाते हैं। सभी प्रकार की पूजा-पद्धतियाँ यहाँ प्रचलित हैं प्राचीनकाल के वेद, कपिल और चार्वाक से आधुनिक युग के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद तक सभी विचारधाराएँ और दर्शन यहाँ मिलते हैं। सभी प्रकार के वैयक्तिक कानून यहाँ प्रचलित है।
विवाह पवित्र संस्कार भी है और इच्छा से तोड़ा जाने वाला सम्बन्ध-मात्र भी। बहुपत्नीत्व भी है और बहुपतित्व भी । भारतीय संस्कृति में ग्रहण और संरक्षण को तो स्थान है, लेकिन विनाश और विध्वंस को नहीं । यहाँ का मुख्य सिद्धान्त ‘जियो और जीने दो’ का है। यही कारण है कि आज आर्य, द्रविड़, दस्यु, किराट, यवन, शक, हूण, मंगोल आदि लोगों का पृथक् रूप से भारत में मिलना कठिन है। जाति सारणियों या कौटुम्बिक वंशावलियों में तो यह नाम मिल सकते हैं, परन्तु इतिहास और भारतीय माताओं की कोखों में इन सबका ऐसा सम्मिश्रण हो गया है कि समस्त भारतीय जन- समुदाय एकरस हो गया है।
भारतीय संस्कृति ने जिस प्रकार शक, सीथीयन, गुर्जर, प्रतिहार जैसे विदेशी तत्त्वों को आत्मसात् कर गयी, उस प्रकार मुस्लिम संस्कृति को नहीं कर पाई। क्योंकि मुसलमानों के आगमन तक यहाँ जाति-व्यवस्था, अस्पृश्यता, अन्धविश्वास एवं कर्मकाण्डों के बन्धन से समाज गतिहीन बन चुका था। दूसरी ओर उसे राज्याश्रय भी प्राप्त था। प्रारम्भ में जब मुसलमान व्यापार करने के बहाने भारत आये तो उन्हें न केवल सुविधाएँ दी गई, बल्कि माँगने पर हिन्दू राजाओं ने उनको मस्जिद बनाने के लिए उदारतापूर्वक भूमि भी प्रदान की।
मुस्लिम फकीरों और औलियाओं को वही सम्मान मिला जो हिन्दू सन्त-महात्माओं को मिलता था। स्वयं इस्लाम में कहा गया है कि जिन ‘रसूलों’ के नाम कुरान में बताये गये हैं, उनके अलावा और भी बहुत से ‘रसूल’ है। अतः वैर-विरोध का प्रश्न कहाँ है? इसीलिए अनेक मुसलमान कवि राम और कृष्ण का गुणगान कर सके। हिन्दुओं के भक्ति-मार्ग और मुसलमानों के सूफी मत में अद्भुत समानता दिखाई देती है। जिस तरह हिन्दुओं में भक्ति मार्ग है उसी तरह मुसलमानों में तसव्वुफ है। जिस अद्वैत की वाणी वेदान्त में गूँजती है, उसी को मंसूर ने ‘अनहलक’ कहा था।
हिन्दू और मुसलमानों के रीति-रिवाजों में ज्यादा फर्क नहीं है। जिसे हिन्दू ‘मुंडन’ कहते हैं, वही मुस्लिम समाज में ‘अलीका’ है, जो माला है वही तसबीह है, यदि मस्जिद में अजान देकर नमाज के लिए बुलाया जाता है तो मन्दिरों में घण्टे, नगाड़े और आरती की ध्वनि होती है। ‘हिन्दुओं का ‘दसकर्म’ मुसलमानों में ‘सवां’ है। कहीं तन्त्र है तो कहीं ताबीज, कहीं रोजा है तो कहीं चान्द्रायण व्रत । कहीं यज्ञोपवीत पहिनते हैं तो कहीं हिलाल और सितारा धारण। आध्यात्मिक और नैतिक जीवन में अपूर्व समन्वय मिलता है। महाभारत के अनुसार ‘आत्मनः प्रतिकूलानिः परेषां न समाचरेत्’ अर्थात् जिस व्यवहार की हम अपने प्रति दूसरे से अपेक्षा रखे, वैसा ही व्यवहार हम दूसरों से करें। कुरान शरीफ में यही दृष्टिकोण मिलता है। त्यौहारों में दोनों एक-दूसरे के यहाँ जाते हैं।
सामाजिक रूप से हिन्दुओं की जाति-पांति कमोबेश मुस्लिम समाज में भी आ गई। भारत के मुसलमानों ने तुर्की या अरबी मुसलमानों ने अरब का अमामा, जुब्बा, रद, तहमद और तस्मा तथा मध्य एशिया की कलह, नीमा, मेज आदि छोड़कर हिन्दू पगड़ी, चीरा कुर्ता, अंगरखा, पद, दुपहा, पायजामा और जूता अपनाया। विवाह पद्धति में भी निस्बत, मेंहदी, तेल, बारात, जलवा, कंगन आदि विधान मुसलमानों ने अपनाये। ग्रामीण मुस्लिम महिलाएँ आज भी हिन्दुओं के अनेक त्यौहार मनाती हैं। हिन्दुओं ने भी मुसलमानों की पोशाकें, रहन-सहन आदि बहुत-कुछ ग्रहण किये हैं। मध्यकाल में हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक समन्वय की प्रेरणा देने वाले भक्ति आन्दोलन के सन्त तथा सूफी सम्प्रदाय के फकीर और औलिया थे। आधुनिक काल में राजा राममोहन राय और स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म का अन्य धर्मों से समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। अतः भारतीय संस्कृति की ग्रहणशीलता अथवा समन्वयशीलता में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जाना चाहिए।
भारतीय संस्कृति की उपर्युक्त विशेषताओं के अध्ययन से यह ज्ञात हो जाता है कि भारतीय संस्कृति को सनातन या चिरस्थायी क्यों कहा गया है। भारतीय संस्कृति की जिन विशेषताओं का विवेचन ऊपर किया गया है वे प्राचीन काल से लेकर अब तक भारतीय जन-जीवन का आधार रही है। यद्यपि समय-समय पर भारतीय संस्कृति में परिवर्तन हुए हैं, किन्तु वे परिवर्तन केवल उसके बाह्य आवरण में हुए हैं। संस्कृति के मूल तत्त्व आज भी वही हैं, जो वैदिक काल में थे। आज भी भारतवासियों के आदर्श वही है जो उनके पूर्वज मानते थे। हजारों वर्ष पूर्व राम और कृष्ण को भारतीय आदर्श महापुरुषों के रूप में मानते थे और आज भी मानते हैं।
भारत की आदर्श स्त्रियों का उदाहरण आज भी सीता और सावित्री से दिया जाता है। 19वीं और 20वीं शताब्दी में स्वामी रामकृष्ण परमहंस, दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी अरविन्द, लोकमान्य तिलक, गुरुदेव टैगोर और महात्मा गाँधी सभी ने वेदों, उपनिषदों और गीता से प्रेरणा प्राप्त की है। संस्कृत ● भाषा आज भी देववाणी मानी जाती है। शिव और शक्ति की उपासना भारत में प्रागैतिहासिक युग में आरम्भ हुई और आज तक प्रचलित है। अनेक वैदिक देवता आज भी हिन्दू परिवारों में पूज जाते हैं। इन्हीं कारणों से भारतीय संस्कृति को सनातन और चिरस्थायी कहा गया है।